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________________ रसौभाग्य : देवविमल गणि १३ε शब्द से उसकी चाटुता करती हुई मयूरों के नृत्य के रूप में आनन्द से झूम उठी है । प्राप्ते प्रियेऽम्बेऽजनि भूजनीयं वप्पीहरावैः कृतचाटुकेव । प्रोद्भिन्नकन्दैः पुलकांकितेवारब्धहारेव कलापिलास्यैः ॥ १३.१०५ देवविमल की प्रकृति यद्यपि श्रीहर्ष की भांति संयोग-वियोग की उद्दीपनगत प्रकृति नहीं है, किन्तु पावस के वर्णन में प्रकृति के उद्दीपक पक्ष के एक-दो उदाहरण मिलते हैं । वहां मेघगर्जना को काम को पुनर्जीवित कर पथिकों के हृदय का मन्थम करते हुए तथा बिजली की चमक को विरहिणियों के शरीर को भस्मीभूत करने वाले आग्नेय अस्त्र के रूप में चित्रित किया गया है । प्रवासिहृद्वारिधिमाथमन्थाचलोपमं वारिधरो जगर्ज । १३.१०१ कार्शानवं शस्त्रमिव प्रयुक्तं व्यलीलसद् व्योम्नीव तडिद्वितानम् ॥ १३.१०३ अपने प्रकृति-प्रेम के कारण देवविमल ने प्रकृति को उपमान के रूप में भी ग्रहण किया है । दोहदोदय के कारण पहले क्षीण हुई, फिर दोहदपूर्ति से पुष्ट शरीर वाली नाथी की तुलना फाल्गुन में पत्ररहित किन्तु चैत्र में पुष्पों, पत्रों तथा फलों से भरी वनस्थली से की गयी है । इस मार्मिक उपमान से गर्मिणी नाथी के शरीर की शिथिलता तथा स्थूलता अनायास बिम्बित हो जाती है ( ३.१२) । सौन्दर्यचित्रण हीरसौभाग्य का सौन्दर्य चित्रण भी अप्रस्तुतों की नींव पर आधारित है । देवविमल ने श्रीहर्ष का अनुकरण करते हुए दो सर्गों (द्वितीय तथा अष्टम) में नारी सौन्दर्य का नखशिख वर्णन किया है । पहले कहा गया है कि देवविमल का उद्देश्य इस वर्णन के द्वारा दमयन्ती के नखशिख चित्रण का समानान्तर प्रस्तुत करना है। शासन देवी के देवत्व को भूलकर उसे शुद्ध मानवी रूप में चित्रित करने में यही भावना सक्रिय है । द्वितीय सर्ग में इभ्यपत्नी नाथी के सौन्दर्य का चित्रण अधिक विस्तृत नहीं है । किन्तु अष्टम सर्ग में देवविमल ने शासन की अधिष्ठात्री देवी का सौन्दर्य उसी प्रकार जमकर ठेठ काव्यशैली में वर्णित किया है" जैसे श्रीहर्ष ने दमयन्ती का आपादमस्तक चित्रण किया है। देवविमल के ये दोनों वर्णन नैषध के सप्तम सर्ग से अत्यधिक प्रभावित हैं तथा दोनों में शब्दगत एवं भावगत साम्य का प्राचुर्य है, परन्तु देवविमल का वर्णन मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता और न वह नैषध के सौन्दर्यचित्रण की भांति क्लिष्ट कल्पनाओं अथवा दूरारूढ़ अप्रस्तुतों से आक्रांत है । श्रीहर्ष दमयन्ती के गुह्य नारी अंग को भी नहीं भूले, देवविमल शासनदेवी के पेडू तक पहुंच कर रुक गये । कवित्व की दृष्टि से दमयन्ती का सौन्दर्यवर्णन दो कौड़ी २३. नखरशिखरादारभ्येति कमाच्चिकुरावधि । प्रथितसुषमामाश्लिष्यन्ती पुरः शुशुभे प्रभोः ॥ हीरसौभाग्य, ८.१७०
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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