SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृत महाकाव्य १३४ सम्बन्धों की अस्थिरता किया गया है ।" परन्तु संसार की निस्सारता तथा दुर्गमता, धनवैभव की चंचलता, और मनुष्य की स्वार्थ-परायणता का हृदयस्पर्शी वर्णन काव्य में शान्तरस की सबसे समर्थ अभिव्यक्ति, हीरसूरि की निरीहता के वर्णन के प्रसंग में, प्रस्तुत पद्य में हुई है । आत्मतोषी तपस्वी का वैभव ऐश्वर्यसम्पन्न सम्राट् से किसी प्रकार कम नहीं है । विश्वे वेश्मनि तारमौक्तिकनभश्चन्द्रोदय भ्राजिनि ज्योतिस्तैलभृतौषधीप्रियतमे स्नेहप्रियोद्भासिनि । आश्लिष्योपशमश्रियं निजभुजगण्डोपधानांकिते पके जगतीतले सुखममी भूमीशवच्छेरते " ॥ १३.२०८ शान्तरस के अतिरिक्त हीरसौभाग्य में वीर, श्रृंगार, वात्सल्य, अद्भुत तथा करुण की, अंग रूप में, निष्पत्ति हुई है, जो मुख्य रस के साथ मिलकर काव्य में तीव्र रसात्मकता की सृष्टि करते हैं । दसवें सर्ग में अकबर की दिग्विजय का वर्णन यद्यपि काल्पनिक है तथापि उससे मुगलसम्राट् के पराक्रम एवं युद्धकौशल का यथेष्ट परिचय मिलता है । देवविमल के शब्दों में वीररस का मूर्त रूप योद्धा है - सांगा झ्व क्वचन वीररसाश्च वीराः (६.६१ ) । श्रीहर्ष की भांति देवविमल के वीररस को 'टिपिकल दरबारी' कहना तो उचित नहीं किन्तु वह, कई स्थलों पर, इसी प्रवृत्ति का आभास देता है । एक उदाहरण पर्याप्त होगा । यत्कीर्तिविद्विषदकीतिहतप्रतीपा सृक्पंक्तिजह, नुतरणिहिणांगजाभिः । जन्यावनीयदवनीशशिनस्त्रिवेणी संग ः किमाविरभवत्त्रिदिवाभिकानाम् ॥ १०.२७ दिग्विजय से अकबर को कीर्ति प्राप्त हुई । शत्रु को अकीर्ति मिली १८. हीरसौभाग्य, ५.१५, २२, २४, २५. १६. तुलना कीजिए—मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः । स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः सुखं शान्तश्शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव ॥ भर्तृहरि, वैराग्यशतक, ७३. २०. तुलना कीजिए -- द्वेष्याकीर्तिकलिन्दशैलसुतया नद्यास्य यद्दोर्द्वयी कीर्तिश्रेणी समागममगाद् गंगा रणप्रांगणे । तत्तस्मिन्विनिमज्य बाहुजभटैरारम्भि रममापरीरम्भानन्दनिकेतनन्दनवनक्रीडादराडम्बरः ॥ नैषध, १२.१२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy