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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य १३२ नैषध के इस वर्णन से इस तरह अभिभूत है कि उसने इस प्रसंग का, अपनी शब्दावली में, पुनराख्यान कर दिया है ।" नैषध का ऋणी होता हुआ भी देवविमल का यह वर्णन श्रीहर्ष की दूरारूढ़ वायवीयता से मुक्त होने के कारण अधिक रोचक तथा प्रभावशाली है । प्रव्रज्या के लिए जाते समय कुमार हीर को देखने को उत्सुक पौरांगनाओं के सम्भ्रमचित्रण (५.१५८ - १७९ ) की प्रेरणा देवविमल को नैषधचरित के पन्द्रहवें सर्ग से मिली होगी, जहां नल को देखने को लालायित पुरनारियों का ऐसा ही चित्रण किया गया है (१५.७४ - १२) | देवविमल ने भावों की अपेक्षा नैषध से यह काव्यरूढ़ि ग्रहण की है। देवविमल श्रीहर्ष के कुछ भावों का भी ऋणी है। दोनों में अध उघड़े स्तन की मंगलघट के रूप में कल्पना की गयी है और हार के बिखरते मोतियों को लाजा के रूप में अंकित किया गया है ।" दमयन्ती के विवाह के अवसर पर कुण्डिनपुर की अद्भुत सजावट की है तथा मांगलिक वाद्यनाद किया जाता है ( १५.१३-१८ ) । इसी प्रकार कुमार हीर के दीक्षार्थं जाते समय अणहिलपत्तन को सजाया जाता है तथा तूर्यनाद से हर्ष की अभिव्यक्ति की जाती है (५.१४८ - १५७ ) । हीरकुमार तथा भगिनी विमला के संवाद ( ५.३६- ९० ) पर नैषध के तृतीय सर्ग में हंस तथा दमयन्ती के वार्तालाप का प्रभाव है । दोनों में हंस तथा हीर तर्क बल से अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। तथा अन्तत: उन्हें अपने उद्देश्य में सफलता मिलती है । नैषध के प्रथम सर्ग में, दमयन्ती के पूर्व राग से व्यथित नल, घोड़े पर सवार होकर, अन्य अश्वारोहियों के साथ, उपवन में मनोविनोद के लिए जाता है (१.५७ - ७३) । अपने मित्रों के साथ, घोड़े पर बैठकर हीरकुमार के नगर के निकटवर्ती उद्यान में जाने का वर्णन ( ५.१३२ - १४७), नैषध के उक्त प्रकरण से प्रेरित है । दोनों में कहीं-कहीं भावों की समानता भी दिखाई देती है । १७ १५. (i) तदा तदंगस्य बिर्भात विभ्रमं विलेपनामोदमुचः स्फुरद्र ुचः । दरस्फुटत्कांचनकेतकीदलात् सुवर्णमभ्यस्यति सौरभं यदि ॥ नैषध, १५.२५ सौरभं सुमनसां समुदायोऽध्यापयेद् यदि महारजतस्य । अंगरागललितार्भक मूर्त स्तल्लभेत तुलनां कलयापि ।। हीरसौभाग्य, ५-१०१. (i) धृतैतया हाटकपट्टिकालिके बभूव केशाम्बुदविद्युदेव सा ॥ नैषध, १५.३२ विभ्रमेण चिराम्बुधराणां ह्रादिनीव निकटे विलुठन्ती । हीरसौभाग्य, ५.१०७ आदि आदि १६. नैषध, १५-७४ - हीर० ५.१७०; नैषध, १५-७५, हीर० ५.१७३. १७. नैषध, १.५७, हीर० ५.१३२; नैषध १.६४, हीर० ५.१४०.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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