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________________ हीरसौभाग्य : देवविमलगणि १२५ गम्भीर शैली, काव्यरूढ़ियों के परिपालन. की तत्परता, प्रौढोक्ति के प्रति पक्षपात आदि तत्त्व काव्य की शास्त्रीयता की निर्णायक विशेषताएं हैं। वस्तुतः देवविमल का उद्देश्य ऐसे महाकाव्य की रचना करना था, जो महाकाव्य की तत्कालीन समृद्ध परम्परा को, उसके गुण-दोषों के साथ, समग्रता से बिम्बित कर सके। इसके कथानक में नाट्य सन्धियों का विनियोग भी इसी दृष्टि से प्रेरित है। हीरसौभाग्य में पौराणिक महाकाव्यों के भी. कतिपय तत्त्व विकीर्ण हैं। पौराणिक रचना की भांति इसमें यशस्वी पुत्रों की प्राप्ति माताओं के स्वप्नदर्शन का फल है। काव्य में देशनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विजयदान सूरि के धर्मोपदेशों से प्रेरित होकर ही हीर तथा जयसिंह प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। आर्हत धर्म का गौरवगान' पौराणिक प्रवृत्ति का सूचक है। वस्तुतः यदि काव्य का आवरण हटा कर देखा जाये, काव्य का प्रमुख प्रयोजन जैनधर्म का उन्नयन करना है, जिसके बिना जीवन उसी तरह निरर्थक है, जैसे फल से शून्य वृक्ष–अपार्थतामुद्रहते परं जनुविना फलौघेरवकेशिनामिव (हीरसौभाग्य, १४.१८)। हीरसौभाग्य में पौराणिक काव्यों के समान स्तोत्रों तथा माहात्म्यों की भरमार तो नहीं है, किन्तु शत्रुजय का विस्तृत वर्णन, उसके माहात्म्य का निष्ठापूर्वक प्रतिपादन, स्वतन्त्र ऋषभ-स्तोत्र का समावेश तथा अन्तिम सर्ग में विविध व्रतों, नियमों तथा धार्मिक क्रियाओं का निरूपण काव्य की पौराणिकता को मुखर करते हैं। परन्तु यह ज्ञातव्य है कि हीरसौभाग्य की शास्त्रीय शैली के सागर में ये पौराणिक तत्त्व बिन्दु के समान हैं। वास्तव में, ये तथाकथित पौराणिक विशेषताएँ अधिकतर जैन काव्यों के अनिवार्य-से अंग हैं, चाहे उनमें किसी शैली की प्रधानता हो। कवि परिचय तथा रचनाकाल हीरसौभाग्य के रचयिता देवविमल के व्यक्तिगत जीवन के विषय में, सर्गान्त के पद्य से, केवल इतना ज्ञात होता है कि उनके पिता शिवा धनवान् व्यापारी थे (साधु मघवा) और उनकी माता का नाम सौभाग्यदेवी था। काव्य की प्रान्तप्रशस्ति उनकी गुरु-परम्परा का विश्वसनीय स्रोत है। उससे पता चलता है कि देवविमल को महान् संयमी तथा मनीषी आचार्यों की परम्परा की थाती मिली थी। उनके प्रगुरु जगर्षि तपागच्छ के उदात्तचरित प्रभावक आचार्य थे। उन्होंने तमोगुणतुल्य लुम्पाकवर्ग से आक्रान्त सौराष्ट्र जनपद को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया था। जर्षि के विद्वान् तथा वाग्मी शिष्य सीहविमल देवविमल के गुरु थे। सीहविमल ने वादिराज गौतम को वाक्कला में सभा के समक्ष उसी तरह पराजित ३. धर्ममार्हतमतो जनिमन्तो यानपात्रमिव संग्रहयध्वम् । होरसौभाग्य ५.१६ ४. प्रशस्ति सूत्र, ७-८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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