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________________ बसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर तथा उन्नीसवें सर्गों से इतना प्रभावित है कि इसे श्रीहर्ष के पूर्वोक्त सर्गों का सार कहा जा सकता है। नवें सर्ग का षड्ऋतु वर्णन नैषध से स्वतंत्र है पर इस पर माघ का गहरा प्रभाव दिखाई देता है । पद्मसुन्दर की प्रकृति, नैषध की तरह, वियोग या संयोग की उद्दीपनगत प्रकृति है। तृतीय सर्ग का उपवन-वर्णन (३५-४४), जो मैषध के प्रथम सर्ग के उपवनचित्रण (७६-११९) का समानान्तर है, वसुदेव की बिरहवेदना को भड़काता है। विरही वसुदेव को चम्पे की कलियां काम की सेना की दीपिकाएं दिखाई पड़ती हैं (३.३६) । आम का विशाल वृक्ष, मंजरी की अंगुली से तर्जना करता हुआ, भ्रमरों की हुंकार से उसे धमकाता है (३.३६) । केतकी बियोगियों के हृदयों को चीरने वाली आरी है (३.४१) और उसे पलाश काम के अर्द्धचन्द्राकार बाण प्रतीत होते हैं, जो विरहीजनों का खून पीकर लाल हो गए हैं (३.४२)। नवें तथा बारहवें सर्ग के प्रकृति-वर्णन संयोग के उद्दीपन का काम देते हैं । ये सर्ग क्रमशः वसुदेव तथा रोहिणी और कनका की सम्भोग-क्रीडाओं के लिए समुचित पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं । नवें सर्ग में ऋतुवर्णन के द्वारा शास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है । यह पद्मसुन्दर के सहज प्रकृतिप्रेम का द्योतक नहीं है । चित्रकाव्य से भरपूर होने के कारण इस वर्णन में प्रकृति गोग हो गई है। इसमें कवि ने विभिन्न यमकभेदों तथा चित्रकाव्य की रचना में अपना कौशल प्रदर्शित किया है। स्पष्टतः यह माघ के प्रकृति वर्णन से प्रेरित तथा प्रभावित हैं, जो प्रकृतिवर्णन के नाम पर इसी प्रकार चित्रकाव्य के जाल में फंस कर रह गए हैं । चित्रकाव्य पर समूचा ध्यान केन्द्रित होने के कारण पद्मसुन्दर प्रकृति का बिम्बचित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुए । शरद् और शिशिर के कुछ चित्र सुन्दर बन पड़े हैं, भले ही ये पूर्ववर्ती कवियों से लिए गए हों । शरद् ऋतु का यह मानवी रूप, साहित्य में सुविज्ञात होता हुआ भी, आकर्षक है। अपने वैभव के कारण शरत् साम्राज्ञी प्रतीत होती है। पूर्ण चन्द्रमण्डल उसका छत्र है, उस पर काश को मात करने वाली चंवरियां डुलाई जा रही हैं और वह शुभ्र आकाश का परिधान पहन कर राजसी ठाट से कमल के सिंहासन पर विराजमान है (६.५४) । धान की बालियां चोंच में लेकर उपवन की वीथियों में बैठी शुकराजि इन्द्रधनुष की रचना करती है (६.५५) । यह वर्णन शिशिरकालीन दृश्य का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है, यद्यपि ऐसे चित्र अत्यन्त विरले हैं। इह नहि मिहिकांशुदृश्यते छादितेऽस्मिन्नन्भसि मिहिकया:भ्रान्तिबाधां दधत्या। महनि मिहिरबिम्बोद्दामधामापि लुप्तं भज निजभुजबन्धं शिशिरा वान्ति वाताः॥ २५. यदुसुन्दर, ६. १५, २६, ४६, ५८, ६५ आदि.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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