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________________ मदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर विरहदाहशमाय गृहाण निजकरेण सरोजमुरोजयोः। व्रतमपि श्वसितोष्मसमीरणावजनि मुर्मुर इत्यजहात्ततः ॥३.२१ यदुसुन्दर के ग्यारहवें सर्ग में सम्भोग श्रृंगार का मधुर चित्र दिखाई देता है । यद्यपि यह वर्णन कालिदास तथा श्रीहर्ष के प्रासंगिक वर्णनों से प्रेरित है, पर इसमें उन्हीं की भांति सम्भोगक्रीड़ा का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है । लजीली नववधू समय बीतने के साथ-साथ रतिकेलि में कैसे अनुकूल बनती जाती है, पद्मसुन्दर ने इसका हृदयग्राही अंकन किया हैं । भावसन्धि का यह चित्र नवोढा के लज्जा तथा काम के द्वन्द्व की सशक्त अभिव्यक्ति है। स्थातुमेनमनिरीक्ष्य नाददात्सभ्रवो रतिपतिनं च त्रपा। वीक्षितुं वरयितर्य्यनारतं तदृशौ विदधतुर्गतागतम् ॥ ११.४५ निम्नोक्त पद्य रतिकेलि का दूसरा ध्रुव प्रस्तुत करता है। प्रातःकाल वसुदेव के अघर पर दन्तचिह्न देखकर नवोढा कनका हंस पड़ी। हंसी का कारण पूछने पर उसने पति के सामने दर्पण रख दिया। इस तरह चुप रह कर भी उसने रात का सारा दृश्य उजागर कर दिया। तं च कोकनदचुम्बिषट्पदश्रीधरं तदधरं विलोक्य सा। सिस्मिये स्मितनिदानपृच्छकं प्रत्युवाच मुंकुरार्पणात्करे ॥ ११.७५ काव्य में अन्यत्र सात्त्विक भावों (६.६३-६६) तया पशु-पक्षियों की कामक्रीड़ाओं (६.८.११) का भी निरूपण है। पशु-पक्षियों की श्रृंगार-चेष्टाएँ रसाभास की कोटि में आती हैं। यदुसुन्दर में वीररस की भी कई स्थलों पर निष्पत्ति हुई है। दसवें सर्ग का युद्ध-वर्णन दो कौड़ी का है । यह वीररसचित्रण में कवि की कुशलता की अपेक्षा उसके चित्रकाव्यप्रेम को अधिक व्यक्त करता है। माघ आदि से संकेत पाकर उसने चित्रकाव्य का ऐसा चक्रव्यूह खड़ा किया है कि वीररस का योद्धा उसमें फंस कर खेत रह गया है। वैसे भी इस वर्णन में वीररस के नाम पर वीररसात्मक रूढ़ियों का निरूपण किया गया है, जो तब तक साहित्य में गहरी जम चुकी थीं। इसमें द्वन्द्वयुद्धों, सिंहगर्जनाओं तथा कबन्धों के भयजनक नृत्यों, स्वर्ग से पुष्पवृष्टि, दुन्दुभिनाद आदि को (१०.३५.३८,५८ आदि) ही वीररस का स्थानापन्न मान लिया गया है। इन रूढ़ियों की अपनी परम्परा है पर ये युद्ध के स्थूल, लगभग उपेक्षणीय, अंग हैं । ये योद्धाओं के पराक्रम की मार्मिक व्यंजना करने में असमर्थ हैं, जो वीररस का प्राण है। चतुर्थ तया पंचम सर्ग में अभ्यागत राजाओं के पराक्रम के वर्णन में वीररस के कुछ विष सुन्दर तथा प्रभावशाली हैं। वे बहुधा श्रीहर्ष के वर्णनों पर आधारित हैं। श्रीहर्ष की तरह पद्मसुन्दर का वीररस दरवारी कवियों का 'टिपिकल वीररस' है
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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