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________________ ४. यदुसुन्दरमहाकाव्य : पदमसुन्दर तपागच्छ के सुविज्ञात आचार्य तथा सम्राट अकबर के आध्यात्मिक मित्र, उपाध्याय पद्मसुन्दर का यदुसुन्दरमहाकाव्य अनूठी रचना है। विवेच्य शताब्दियों में कालिदास, माघ आदि प्राचीन अग्रगण्य कवियों के अनुकरण पर अथवा उनकी समस्या पूर्ति के रूप में तो कुछ काव्य लिखे गये पर यदुसुन्दर एक मात्र ऐसा महाकाव्य है, जिसमें संस्कृत-महाकाव्य-परम्परा की महानता एवं तुच्छता के समन्वित प्रतीक, श्रीहर्ष के नैषध चरित को रूपान्तरित (एडेप्ट) करने का दुस्साध्य कार्य किया गया है । रूपान्तरण विष के समान है, जिससे आहत मौलिकता को पाण्डित्यपूर्ण क्रीडाओं की संजीवनी से भी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष की दृप्त बहुश्रुतता, कृत्रिम भाषा तथा जटिल शैली के कारण वज्रवत् दुर्भेद्य नैषध चरित का उपयोगी रूपान्तर प्रस्तुत करने का प्रशंसनीय कार्य किया है किन्तु उसे अनेकशः अपनी असाहयता अथवा नैषध के दुर्धर्ष आकर्पण के कारण काव्य का संक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा है जिससे यदुसुन्दर कहीं-कहीं रूपान्तर की अपेक्षा नैषधचरित के लघु संस्करण का आभास देता है । यदुसुन्दर की दूसरी विशेषता यह है कि हम्मीरमहाकाव्य के अतिरिक्त यही ऐसा जैन काव्य है जिसे साहित्येतर उद्देश्य की पूर्ति के साधन के रूप में प्रयुक्त नहीं किया गया है। इसकी रचना विशुद्ध साहित्यिक भावना से प्रेरित है। इसमें मथुराधिपति यदुराज समुद्रविजय के अनुज वसुदेव तथा विद्याधरसुन्दरी कनका के विवाह तथा विवाहोत्तर केलियों का वर्णन है, जो प्रायः सर्वत्र श्रीहर्ष का अनुगामी है। यदुसुन्दरमहाकाव्य अभी तक अमुद्रित है । बारह सर्गों के इस महत्त्वपूर्ण काव्य की एकमात्र उपलब्ध हस्तलिखित प्रति (संख्या २८५८, पुण्य), लालपतभाई दलपतभाई भारतीविद्या संस्थान, अहमदाबाद में सुरक्षित है। प्रस्तुत अध्ययन ५४ पत्रों के इस हस्तलेख की प्रतिलिपि पर आधारित है, जो मैंने स्वयं सावधानी से तैयार की थी। संस्थान के तत्कालीन निदेशक, पण्डित दलसुख भाई मलवणिया हार्दिक कृतज्ञता के पात्र हैं, जिन्होंने यह दुर्लभ प्रति भेज कर अद्भुत साहित्यनिष्ठा तथा उदारता का परिचय दिया। कविपरिचय तथा रचनाकाल यदुसुन्दरमहाकाव्य के प्रणेता उपाध्याय पद्मसुन्दर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अंशभूत तपागच्छ के विश्रुत विद्वान् थे। यदुसुन्दर की पुप्पिका में उन्हें 'पण्डितेश'
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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