SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ जैन संस्कृत महाकाव्य सूचित अवश्य करते हैं, किन्तु इनसे रसचर्वणा में अवांछनीय बाधा आती है । टीका बिना इनका वास्तविक अर्थ समझना प्रायः असम्भव है । संतोष यह है माघ, वस्तुपाल आदि की भांति इन प्रहेलिकाओं का पूरे सर्ग में सन्निवेश न करके, कीतिराज ने अपने पाठकों को बौद्धिक व्यायाम से बचा लिया है । अलंकार विधान प्रकृति-चित्रण आदि के समान अलंकारों के प्रयोग में भी कीर्तिराज ने सुरुचि तथा सूझबूझ का परिचय दिया है । अलंकार भावाभिव्यक्ति में कितने सहायक हो सकते हैं, नेमिनाथकाव्य इसका ज्वलन्त उदाहरण है । कीर्तिराज की इस सफलता का रहस्य यह है कि उसने अलंकारों का सन्निवेश अपने ज्ञान- प्रदर्शन अथवा काव्य को अलंकृत करने के लिए नहीं अपितु भावों को सम्पन्नता प्रदान करने के लिए किया है । उसे ज्ञात है कि अनावश्यक अलंकरण काव्यरस में अवांछनीय बाधा उत्पन्न करता है - (अतिभूषणाद् भवति नीरसो यतः १२.१० ) । नेमिनाथमहाकाव्य के अलंकारों का सौन्दर्य इसके अप्रस्तुतों पर आधारित है । उपयुक्त अप्रस्तुतों का चयन कवि की पैनी दृष्टि, अनुभव, मानव प्रकृति के ज्ञान, संवेदनशीलता तथा सजगता पर निर्भर है । कीर्तिराज ने जीवन के विविध पक्षों से उपमान ग्रहण किये हैं । उसके अप्रस्तुत अधिकतर उपमा तथा उत्प्रेक्षा के रूप में प्रकट हुए हैं। उनसे वर्णित भाव तथा विषय किस प्रकार स्पष्ट तथा समृद्ध हुए हैं, इसके दिग्दर्शन के लिये कतिपय उदाहरण आवश्यक हैं । प्रभु के दर्शन से इन्द्र का क्रोध ऐसे शान्त हो गया जैसे अमृतपान से ज्वरपीड़ा और वर्षा से दावाग्नि (५.१४) । जहाँ ज्वराति और दावाग्नि देवराज के क्रोध की प्रचण्डता का बोध कराती हैं वहाँ अमृतपान तथा वर्षा उपमानों से उसके सहसा शान्त होने का भाव स्पष्ट हो गया है । नेमिप्रभु ने अपनी सुधा - शीतल वाणी से यादवों को इस प्रकार प्रबोध दिया जैसे चन्द्रमा कुमुदों को विकसित करता हैं। (( १०.३५) । कुमुदों को खिलते देख कर भलीभांति कि यादवों को कैसे बोध मिला होगा ! नेमि को अचानक वधूगृह से लौटते देखकर यादव उनके पीछे ऐसे दौड़े जैसे व्याध से भीत हरिण यूथ के नेता के पीछे भागते हैं ( १०.३४ ) । त्रस्त हरिणों के उपमान से यादवों की चिन्ता, आकुलता आदि तुरन्त व्यक्त हो जाती है । काव्य में इस प्रकार की मार्मिक उपमाओं की भरमार है । अनुमान किया जा सकता है भावाभिव्यक्ति के लिये कवि ने मूर्त तथा अमूर्त दोनों प्रकार के उपमानों जिस-जिस पर कृपा-दृष्टि डाली कामातुर युवती अपने प्रेमी का का समान सफलता से प्रयोग किया है । राजा ने उसका हर्षलक्ष्मी ने ऐसे आलिंगन किया जैसे
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy