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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य कीतिराज की भाषा में बिम्ब-निर्माण की पूर्ण क्षमता है । सम्भ्रम के चित्रण की भाषा त्वरा तथा वेग से पूर्ण है । अपने इस कौशल के कारण कवि, दसवें सर्ग में, पौर स्त्रियों की अधीरता तथा नायक को देखने की उत्सुकता को मूर्त रूप देने में समर्थ हुआ है। देवसभा के इस वर्णन में, इन्द्र के सहसा प्रयाण से उत्पन्न सभासदों की आकुलता, उपयुक्त शब्दावली के प्रयोग से, साकार हो गयी है । दृष्टि ददाना सकलासु दिक्षु किमेतदित्याकुलितं ब्रवाणा । उत्थानतो देवपतेरकस्मात् सर्वापि चुक्षोभ सभा सुधर्मा ॥ ५.१८ नेमिनाथमहाकाव्य सूक्तियों और लोकोक्तियों का विशाल कोश है । ये कवि के लोक ज्ञान की द्योतक हैं तथा काव्य की प्रभावकारिता में वृद्धि करती हैं। कतिपय रोचक सूक्तियां यहां उद्धृत की जाती हैं। १. ही प्रेम तद्यद्वशत्तिचित्तः प्रेत्यति दुःखं सुखरूपमेव । २.४३ २. उच्चैः स्थितिर्वा क्व भवेज्जडानाम् । ६.१३ ३. काले रिपुमप्याश्रयेत्सुधीः । ८.४६ ४. शुद्धिर्न तपो विनात्मनः । ११. २३ ५. सुकृतैर्यशो नियतमाप्यते । १२.७ इन गुणों से भूषित होती हुई भी नेमिनाथकाव्य की भाषा में कतिपय दोष हैं, जिनकी ओर संकेत न करना अन्यायपूर्ण होगा। काव्य में कतिपय ऐसे स्थलों पर विकट समासान्त पदावली का प्रयोग किया गया है, जहां उसका कोई औचित्य नहीं है। युद्धादि के वर्णन में तो समास-बहुला भाषा अभीष्ट वातावरण के निर्माण में सहायक होती है, किन्तु मेरु-वर्णन के प्रसंग में क्या सार्थकता है (५.५२) ? इसके अतिरिक्त कवि ने यत्र-तत्र छन्द पूर्ति के लिए अतिरिक्त पद लूंस दिये हैं, 'स्वकान्तरक्ताः ' के पश्चात्' पतिव्रता' का (२.३७), 'शुक' के साथ 'वि' का (२.५८), 'मराल' के साथ 'खग' का (२.५६), 'विशारद' के साथ विशेष्यजन' का (११.१६) तथा 'वदन्ति' के साथ 'वाचम्, का (३.१८) का प्रयोग सर्वथा आवश्यक नहीं है । इनसे एक ओर, इन स्थलों पर, छन्दप्रयोग में कवि की असमर्थता प्रकट होती हैं, दूसरी ओर यहां वह काव्य दोष आ गया है, जो साहित्यशास्त्र में 'अधिक' नाम से ख्यात है। उदग्रसाधनम् (२.३८) में अश्लीलता व्यंग्य है। वारिजलाशये (८.३१), प्रमदवारिवारिधिः (६.६५) तथा ध्वनिनादवाचाल (१०.४६) में व्यग्य का शब्द द्वारा कथन किया गया है। 'अथ यत्तव रोचतेतराम्' (११.३९) में षष्ठी के व्याकरण विरुद्ध होने से च्युतिसंस्कृति दोष है । १२-३५ में उपमेय के बहुवचन तथा उपमान के एकवचन में होने से भग्नप्रक्रमता दोष से दूषित है । विद्वता-प्रदर्शन नेमिनाथकाव्य की भाषा का दूसरा पक्ष उन कलाबाजियों में दृष्टिगत होता
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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