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________________ योगिनी के वेश में मनमोहिनी का रूप शतगुणित खिल उठा। उसने भगवा वस्त्र, रुद्राक्ष की माला पहन रखी थी। ललाट पर चंदन का भव्य त्रिपुंड्र तिलक कर लिया था.... वास्तव में नवयौवना योगिनी इन्द्र को भी विचलित करने में समर्थ रूपवती और आकर्षक लग रही थी। . तीसरे दिन रात में जब माता-पिता उससे मिलने आए तब मनमोहिनी ने पिताश्री से कहा-'पिताश्री! आप कल प्रात: महाराजा से मिलने जाएं और परसों वे अपने युवराज पुत्र के साथ यहां भोजन करने पधारें, ऐसी प्रार्थना करें। वे यदि आनाकानी करें तो किसी बात का बहाना बनाकर युवराजश्री को वे अवश्य ही यहां भेजें, ऐसा निश्चय कराकर आएं।' "फिर?' 'फिर क्या करना है, यह बाद में निश्चय करेंगे....आपके भवन पर आने का एक ही मार्ग है और वह मार्ग इस मकान के पास से ही गुजरता है....मैं झरोखे में खड़ी रहकर उन्हें देख लूंगी। यदि उस समय नहीं देख पाऊंगी तो माधुकरी के निमित्त घर पर आ जाऊंगी।' माता-पिता को कुछ भी समझ में नहीं आया। चौथे दिन ऋतुस्नान कर मनमोहिनी पिता के भवन में भिक्षा लेने आयी। मध्याह्न से पूर्व सेठ सुदंत पुत्री के पास जाकर बोला- 'महाराजा ने आना स्वीकार नहीं किया, केवल युवराजश्री अपने एक मित्र के साथ यहां आएंगे।' 'कब आएंगे?' 'राजसभा सम्पन्न होने पर वे यहां आएंगे और सांझ तक यहीं रुकेंगे।' यह सुनकर मनमोहिनी के नयन तेजोमय हो गए। . दूसरे दिन राजसभा में जाने से पूर्व विक्रमचरित्र पिता को प्रणाम करने गया, तब विक्रम बोले-'आज तुझे अपनी ससुराल भोजन के लिए जाना है।' 'मेरे ससुराल ? पिताश्री! आप यह क्या कह रहे हैं? विवाह के बिना ही ससुराल?' देवकुमार ने आश्चर्यचकित होकर कहा। वीर विक्रम बोले- 'पुत्र! बैठो, मैं सारी बात बताता हूं। मैंने एक दिन एक सुन्दर और बुद्धिमती कन्या देखी थी। किन्तु उस कन्या ने मेरे साथ एक विवाद किया। मैंने उस सुन्दर कन्या के पास गुप्त रूप से तेरा खड्ग भेजकर विवाह की रीति सम्पन्न की। उसकी बुद्धि की परीक्षा करने के लिए मैंने उसे एक ऐसे स्थान पर रखा है, जहां उससे कोई मिल नहीं सकता। यह बात अत्यन्त गुप्त है। तुम भी किसी से मत कहना।' वीर विक्रमादित्य ४०७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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