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________________ गया। सभी पौरजन इस नवयुवक को आश्चर्यचकित दृष्टि से देखने लगे। जैसे आश्चर्य अनन्त था, वैसे ही शांति भी अजब थी। किसी भी प्रकार का कोलाहल नहीं था। सबका हृदय यह जानने के लिए आतुर था कि यह कौन होगा? राज-परिवार की स्त्रियां एक ओर बैठी थीं। वे सब इस तरुण को स्थिर दृष्टि से देख रही थीं। सर्वहर-रूपी देवकुमार मंच पर चढ़ा और एक तरफ विनम्र भाव से खड़ा हो गया। फिर महाराजा को तीन बार प्रणाम कर विनम्र स्वरों में बोला-'कृपानाथ! आपका दासानुदास सर्वहर आपके समक्ष उपस्थित है।' 'कहां है? वह स्वयं यहां आए।' महामंत्री ने कहा। 'मंत्रीश्वरजी! आप मुझे इतने कम समय में ही भूल गए। उस दिन मैं ही आपके भवन पर आया था। मैं ही सर्वहर हूं।' सारी सभा अवाक रह गई। गणिका चपलसेना की आंखें सर्वहर पर टिक गईं। उसने सोचा-अरे! यह तो जयसेन है, जो मेरे साथ आठ दिन तक रहा। ओह ! जयसेन....सर्वहर....। महाराज विक्रमादित्य बोले-'तुझे देखकर मेरा चित्त अत्यन्त प्रसन्न है। तेरे वदन पर उन्नत भाव उभर रहे हैं। तू इतनी भयंकर चोरियां करे, ऐसा मानने में मन साक्षी नहीं देता। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि तू स्वयं सर्वहर है या तू सर्वहर का दूत है?' सर्वहर पुन: मस्तक झुकाकर प्रसन्न स्वर में बोला-'महाराज! मैं स्वयं सर्वहर हूं। चोरी, जुआ, परस्त्रीगमन, मांसाहार, मद्यपान आदि को मैं भयंकर दूषण मानता हूं। फिर भी मैंने आपको विस्मृत की स्मृति कराने के लिए इतनी चोरियां कीं। किन्तु मैंने आपको विश्वास दिलाया था कि चोरी का सारा माल मेरे पास सुरक्षित है और वह उसके मूल स्वामी को मिल जाएगा।' सारी सभा सर्वहर की बात सुनकर अवाक् रह गई। शांति और अधिक गहरी हो गई। महाराज विक्रमादित्य ने सर्वहर की ओर देखकर कहा- 'सर्वहर, तूने मुझे एक सती नारी के प्रति अन्याय होने की बात बार-बार कही थी। किन्तु मेरे हाथ से ऐसा कोई अन्याय हुआ हो, ऐसा मुझे याद नहीं है।' 'कृपानाथ! ऐसी विराट् राजसभा के समक्ष मैं यह रहस्य प्रकट करूं, यह मुझे उचित नहीं लगता। आप आज्ञा दें तो मैं राजभवन में एकान्त में सारी बात बताऊं।' वीर विक्रमादित्य ३८६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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