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________________ अश्वारोही बोला- 'उनके साथ महाबलाधिकृत भी हैं। वे कुछ महत्त्वपूर्ण विचार-विमर्श करने के लिए यहां आ रहे हैं।' महामंत्री ने नौजवान को पैनी दृष्टि से देखते हुए कहा- 'मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।' नौजवान अभी तक अश्व पर आरूढ़ था। उसने मुस्कराते हुए कहा'आप तो बड़े आदमी हैं। महाबलाधिकृत के बालक को कैसे पहचानेंगे?' 'ओह!' कहकर महामंत्री ने रथचालक को रथ मोड़ने के लिए कहा। रथ के पीछे-पीछे नौजवान ने भी अपने अश्व को महामंत्री के भवन में प्रवेश कराया। रथ से महामंत्री नीचे उतरे। उनकी दृष्टि महाबलाधिकृत के पुत्र पर पड़ी। उन्होंने तत्काल पूछा- 'क्या कुछ कहना है ?' 'हां कृपालु ! मुझे एक महत्त्वपूर्ण संदेश देना है।' 'संदेश!' 'हां, मंत्रीश्वर! अतिगुप्त और महत्त्वपूर्ण संदेश! आप भीतर चलें, मैं बताऊंगा।' महामंत्री का आश्चर्य वृद्धिंगत हुआ। वे आगे चले और अपने मुख्य खंड में आए। द्वार पर खड़े रक्षक एक ओर खिसक गए। एक त्रिपदी पर स्वर्ण का थाल पड़ा था। उस थाल में नीलम की माला चमचमा रही थी। महामंत्री ने पूछा- 'तुम्हारा नाम ?' 'जयकुमार, महात्मन्! महाबलाधिकृत के यहां कल चोरी ही नहीं हुई, उनकी षोडशवर्षीया पुत्री-मेरी बहन-का भी अपहरण हो गया। यह बात किसी को ज्ञात न हो, इसलिए मुझे आपके पास भेजा है। राजराजेश्वर भी इस बात से बहुत चिन्तित हो गए हैं और आपको बुलाने के लिए भेजा हैं' 'अत्यन्त भयंकर समाचार! तब तुमने मुझे वहां से मोड़ा क्यों?' 'इसके लिए मैं आपसे क्षमा मांग लेता हूं। यह बात सारथी के सम्मुख कहने योग्य नहीं थी, इसीलिए....।' 'ओह! तुम बड़े चालाक हो। अच्छा, चलो', कहकर महामंत्री खड़े हुए। उस समय कक्ष में महामंत्री के सिवाय और कोई नहीं था। नौजवान ने क्षण का भी विलम्ब न कर, उसी समय संमूर्छन चूर्ण की एक चुटकी महामंत्री के मुंह पर डाली...महामंत्री चौंके...वे मुंह से कुछ शब्द निकालें, उससे पूर्व ही वे जमीन पर लुढ़क गए। वह जय नहीं, किन्तु देवकुमार ही था। उसने तत्काल उस कक्ष का द्वार बंद कर दिया और महामंत्री के एक ओर की मूंछ काट ली। फिर उसने स्वर्णथाल ३७८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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