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________________ हो गई है। इस नारी की यह अधम मनोदशा कैसे हुई होगी? मैंने तो इसे कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया, फिर भी इसके प्राणों में ऐसी भयंकर अग्निक्यों सुलग रही है? ऐसे विचार आते और पंडितजी वल्लभ के साथ विचार-विमर्श भी कर लेते। प्राय: चर्चा के लिए वे नदी-तट पर चले जाते। वीर विक्रम पंडितजी को धैर्य बंधाता और उनके चित्त को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करता। कृष्णा त्रयोदशी के दिन जब पंडितजी स्नान करने नदी-तट पर गए तब विक्रम ने चतुर्दशी को क्या करना है, यह भली-भांति समझा दिया। पंडितजी को कुछ आश्वासन मिला। सभी शिष्यों के साथ पंडितजी घर आए, तब उमादे ने अपने स्वामी का चरणामृत लिया और कहा- 'स्वामी! मेरे पर आपको कृपा करनी होगी।' 'प्रिये! जहां प्रेम होता है वहां कृपा का कोई प्रश्न नहीं उठता। तुम्हारी इच्छा पूरी करना मेरा कर्तव्य है। तुम्हारी जैसी सती-साध्वी पत्नी के द्वारा ही मेरी इतनी शोभा है। बोलो, तुम्हारी क्या भावना है ?' 'स्वामिन ! कल कृष्णा चतुर्दशी है। उस दिन मेरा व्रत पूरा होगा। यदि आप मेरे पर कृपा करें तो मैं व्रत की पूर्णाहुति विधिवत् करूं।' 'प्रिये! तुम्हारे व्रत की पूर्णाहुति मेरे लिए परम आनन्द का विषय है। तुम कहो तो मैं दो सौ-चार सौ ब्राह्मणों को भोजन कराने का प्रबंध कर दूं।' ___ 'नहीं, स्वामी ! ऐसा व्यर्थ व्यय अपेक्षित नहीं है और मैंने यह व्रत आपके आयुष्य-वर्धन के लिए ही किया था, इसलिए कल दूसरे प्रहर में मुझे आपके चौंसठ शिष्यों को भोजन कराना है और आप सबकी विशिष्ट प्रकार से पूजा भी करनी है।' 'बहुत अच्छा! इसके लिए जो सामग्री चाहिए वह मैं मंगवाकर तुम्हें दे दूं। वल्लभ इस काम में बहुत निपुण है।' ___ 'तो आप कल संध्या के समय कणेर के फलों की छियासठ मालाएं तैयार करवाएं। शेष कार्य मैं कर लूंगी। भोजन भी मैं अपने हाथों से ही बनाऊंगी।' उमादे ने कहा। वीर विक्रम और अन्य छह शिष्य वहां बैठे थे। उनमें विक्रम के सिवा कोई इस माया को नहीं जानता था। पंडितजी ने विक्रम की ओर देखकर कहा-'वल्लभ! क्या तुम कणेर की छियासठ मालाएं प्राप्त कर सकोगे?' 'अवश्य, आपकी आज्ञा के अनुसार संध्या के समय मैं छियासठ मालाएं तैयार रखूगा । नदी के किनारे की एक पुष्पवाटिका में कणेर के अनेक वृक्ष हैं। फिर उमादे से विक्रम ने कहा- 'गुरुपत्नी श्री! कणेर तीन प्रकार की होती है-लाल, पीत और श्वेत । कौन से रंग के फूलों की माला तैयार कराऊं?' २६० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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