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________________ भोजन पूरा होने पर उस पुरुष ने दोनों प्याले मदिरा से भरे। एक प्याला उमादे के हाथ में देते हुए वह बोला, 'प्रिये! तू मुझे पिला और मैं तुझे पिलाऊंगा।' दोनों ने एक-दूसरे को मद्यपान कराया। कुछ ही क्षणों में दोनों मस्त बन गए। पंडितजी की धड़कन बढ़ रही थी-क्या मेरी पत्नी इतनी कुलटा है? ओह! इसका सती का अभिनय क्या मेरे विनाश के लिए ही था? जो नारी स्वामी का चरणामृत लिये बिना कुछ खाती-पीती नहीं, क्या वह मैरेय पान कर....| ओह! पंडितजी ने देखा-दोनों रतिक्रीड़ा की तैयारी कर रहे थे। पंडितजी ने सोचा, अब इस पापकृत्य को न देखना ही अच्छा है। वे तत्काल मुड़े और जिस रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से चलकर वृक्ष के कोटर में जा बैठे। पंडितजी को मानो हजार बिच्छुओं ने एक साथ काट खाया हो, ऐसी पीड़ा होने लगी। यदि वल्लभ ने यह नहीं देखा होता तो पांच दिन बाद मेरी और मेरे सभी विद्यार्थियों की मौत निश्चित थी। निश्चित ही वल्लभ ने मेरे पर परम उपकार किया है। किन्तु ऐसे बदसूरत और काले-कुरूप व्यक्ति पर उमादे मुग्ध कैसे बनी होगी? ओह, नारी के मन को पहचान पाना भगवान् के लिए भी कठिन है। नारी कब, कहां और क्या करेगी, कोई नहीं जान सकता। मैं आज तक उमादे को सती मानकर अंधा बना रहा। इसका व्रतनियमों का पालन अभिनय-मात्र था, यह आज स्पष्ट हो गया। इस प्रकार असंख्य विचारों की उथल-पुथल के बीच पंडितजी वृक्ष के कोटर में बैठे रहे....फिर जाकर देखू कि उस खंड में क्या हो रहा है? फिर सोचानहीं-नहीं....पापियों के पापकर्म को क्यों देखना चाहिए? यदि पापकृत्य देखकर मैं आवेश में कुछ कर बैठा तो पांच दिन बाद आने वाली मृत्यु आज हो जाएगी। रात्रि का तीसरा प्रहर प्रारंभ हुआ। पंडितजी ने आस-पास देखा, किन्तु वे यह निर्णय नहीं कर पाये कि यह स्थान क्या है ? कहां है? तब तीसरे प्रहर की एकाध घटिका शेष रही तब मकान का द्वार खुला और पंडितजी ने देखा कि दोनों वृक्ष की ओर आ रहे हैं। पंडितजी अकुलाहट अनुभव कर रहे थे-कहीं मुझे ये देख न लें? मेरे से कोई आवाज न निकल जाए । मनुष्य को मौत का भय सबसे दारुण लगता है। कुछ ही क्षणों में उमादे अपने प्रेमी के साथ वृक्ष के पास आ गई। विदाई के समय उस प्रेमी ने उमादे को बाहुपाश में जकड़ लिया और पांच-छह चुंबन लेते हुए कहा- 'उमा ! कल मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।' वीर विक्रमादित्य २८७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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