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________________ पहली बार देख रही थी। वह चौंकी। राजकन्या ने संशय के स्वरों में कहा- 'मैंने जो छवि देखी थी....?' बीच में ही विक्रम ने हंसते हुए कहा- 'ओह ! तुमने जो छवि देखी थी वह तुम्हारे पिता के शत्रु की ठगाई थी....तुम्हारे पिता की नाक काटने की योजना थी....भीमकुमार छवि से भी बहुत अधिक कुरूप था, मद्यपायी भी था.....।' 'आप कौन हैं?' 'मैं ?' कहकर विक्रम खिलकर हंस उठे और हंसते-हंसते बोले-'मैं जीवन के साथ जुआ खेलने वाला जुआरी हूं, किन्तु अभी हम कुछ खा लें।' कहकर विक्रम ने डिब्बे से मिठाई निकाली। राजकन्या बोली-'तो फिर आप मुझे दक्षिण की ओर क्यों ले जा रहे हैं?' 'पहले क्षुधा शांत करो.....कुछ विश्राम करो....अब चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं है।' कहकर विक्रम मिठाई खाने लगे। संशयग्रस्त राजकन्या विचारमग्न होकर बैठी रही। विक्रम बोले- 'देवी! पेट में कुछ गिरेगा तो मन की व्यथा दूर हो जाएगी। तुमने यह तो जान ही लिया होगा कि मध्यरात्रि से लेकर अब तक मैं तुम्हारे साथ रहा हूं, परन्तु क्षण भर भी मैंने तुम्हारे साथ कोई अभद्र व्यवहार नहीं किया।' 'आपका नाम ?' 'विक्रम जुआरी.....।' 'मुझे कहां ले जा रहे हैं ?' 'इसका जवाब तब मिलेगा जब तुम कुछ खा लोगी।' राजकन्या को भूख सता रही थी....उसने मिठाई खानी शुरू की। भोजनादि से निवृत्त होकर विक्रम जलाशय की ओर गए। पानी पिया और लौटते समय पानी से एक लोटा भर लाए। राजकन्या ने जलपान किया। विक्रम को लगा कि राजकन्या कुछ आश्वस्त हुई है। वे बोले-'कुछ विश्राम करना है, या प्रवास करना है?' 'आप कुछ विश्राम करें। पूरी रात का जागरण है और ऊंट का प्रवास...' 'नहीं देवी! मैं ऐसे प्रवासों का अभ्यस्त हूं....जब मैं थक जाऊंगा तब अवश्य ही आराम कर लूंगा।' विक्रम ने कहा। 'तो....?' 'क्या?' 'आपने कहा था कि मिठाई खाने के पश्चात्....अब आप बताएं कि मुझे कहां ले जा रहे हैं?' वीर विक्रमादित्य २५६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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