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________________ एक रत्न-पेटिका है। उस रत्न-पेटिका को आप पहले प्राप्त करें....फिर आगे क्या करना है, वह मैं आपको बताऊंगी।' नागदमनी ने कहा। महाराजा विक्रमादित्य ने उल्लास-भरे स्वरों में कहा, 'देवी! वह रत्नपेटिका मैं अवश्य ही प्राप्त कर लूंगा। ताम्रलिप्ति का नाम तो मैंने भी सुना है। वहां मैं अवश्य जाऊंगा।' ___ नागदमनी बोली, 'महाराज! आपकी मनोकामना अवश्य ही पूरी होगी। जब पंचदंड की सारी सामग्री उपलब्ध हो जाएगी, तब स्वयं मैं उस छत्र का निर्माणकार्य आपको सौंपूंगी।' विक्रम ने प्रसन्न हृदय से नागदमनी का अभिवादन किया। नागदमनी वहां से विदा हुई। ताम्रलिप्ति कैसे पहुंचा जाए, यह प्रश्न विक्रमादित्य के हृदय में घुलने लगा। ४७. ताम्रलिप्ति की सीमा में रात्रि के दूसरे प्रहर की दो घटिकाएं बीत जाने पर वीर विक्रम देवदमनी के आवास में गए। आज विवाह की पांचवीं रात थी। वीर विक्रम प्राय: पांच रात्रियां नयी रानी के साथ बिताते थे और फिर रानियों के क्रम से उनके पास जाते थे...किंतु दिन को वे रानी कमला और कला के पास ही बिताते थे। ये दोनों रानियां उन्हें बहुत प्रिय थीं। देवदमनी ने पुष्पमाला अर्पित कर अपने स्वामी का स्वागत किया। विक्रम ने देवदमनी से कहा-'प्रिये ! कल प्रात:काल तुम भी कमला के पास आना। एक महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा करनी है।' ‘ऐसी क्या बात है?' 'तुम्हारी मां के साथ जो बात हुई थी, वह तो मैंने तुमको बता दी है।' 'हां.....क्या आप ताम्रलिप्ति जाना चाहते हैं?' विक्रम ने हंसकर कहा- 'हां, प्रिये ! साहस को यौवन प्रिय होता है और यौवन को साहस प्रिय होता है।' 'किन्तु वह नगरी तो बहुत दूर है।' 'मैं जानता हूं, किन्तु वहां पहुंचने का उपाय मैंने ढूंढ लिया है। तुम अपनी मंत्रशक्ति द्वारा वृक्ष को ताम्रलिप्ति पहुंचा देना।' हंसकर वीर विक्रम ने कहा। देवदमनी ने स्वामी के दोनों चरण पकड़कर कहा-'महाराज! आपके चरणों की दासी बनने का सौभाग्य प्राप्त करने के पश्चात् मैंने अपनी सारी सिद्धियों को तिलांजलि दे डाली है।' २३८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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