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________________ देवदमनी ने प्रश्नभरी दृष्टि से विक्रम की ओर देखा। वीर विक्रम ने नागदमनी की ओर देखकर कहा- 'यदि मैं जीत गया तो मेरा स्वप्न साकार होगा और एक सुन्दरी का जीवन भर सहचार मिल जाएगा।' 'यदि आप विजेता बनेंगे तो मैं भी धन्य हो जाऊंगी, किन्तु यह शक्य नहीं है' नागदमनी ने कहा। 'नागदमनी ! मुझे इसकी भी चिन्ता नहीं है। हारने का निश्चय करके ही मैंने खेलना शुरू किया है। जैसे विजय का आनन्द अपूर्व होता है, वैसे ही हार में छिपी हुई मस्ती भी अनन्य होती है। अब हम खेल प्रारम्भ करें।' वीर विक्रम ने यह चर्चा सकारण की थी। आज का खेल अधूरा रहे, वे यह चाहते थे। क्योंकि कल खेलने के पश्चात् अमावस्या के दिन क्षेत्रपाल द्वारा निर्दिष्ट युक्ति के अनुसार खेलना चाहते थे। देवदमनी भी वीर विक्रम की चर्चा से अत्यन्त प्रभावित हो गई थी। उसके अन्तर में भी यह भावना जाग गई थी कि यदि वीर विक्रम जैसे पति मिल जाएं तो जीवन सफल हो जाए। उसने जान ही लिया था कि वीर विक्रम सुन्दर, स्वस्थ और तेजोमूर्ति हैं। जिस नारी ने पूर्वजन्म में अपूर्व तप तपा है, उसे ही ऐसे स्वामी मिल सकते हैं। किन्तु यह आशा कैसे सफल हो? खेल में हार जाना, यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है और हारे बिना ऐसा प्रियतम मिलना दुर्लभ है। तब? खेल प्रारम्भ हो चुका था। देवदमनी ने यह निश्चय कर लिया था कि आज ही दो बार जीत जाना है, किन्तु सांझ तक जीत-हार किसी की नहीं हुई। खेल अधूरा ही रहा। नागदमनी बोली-'कृपानाथ! कल मेरी पुत्री कारणवश नहीं आ सकेगी, इसलिए...।' __ 'कोई बात नहीं है। परसों हम फिर खेलेंगे।' यह कहकर विक्रम उठ खड़े हुए। नागदमनी और देवदमनी भी घर की ओर चल पड़ीं। विक्रम ने भवन में आकर देखा-क्षेत्रपाल के लिए नैवेद्य की सामग्री तैयार कर रथ में रख दी गई है। वीर विक्रम सभी रानियों को साथ लेकर क्षेत्रपाल के मंदिर की ओर प्रस्थित हुए। साथ में अनेक रक्षक भी थे। वीर विक्रमादित्य २१६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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