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________________ क्षेत्रपाल ने कहा- 'राजन! यहां से उत्तर दिशा में दो सौ योजन की दरी पर सिकोत्तर नाम का एक सुन्दर पर्वत है। इस पर्वत के मध्य भाग में उच्चतम शिखर पर सिकोत्तरी माता का भव्य मंदिर है। इस देवी की देवता भी पूजा करते हैं, इसलिए यह प्रदेश जनशून्य है। वहां कुछेक वनवासी रहते हैं। परसों रात्रि के दूसरे प्रहर में इन्द्र अपनी प्रिया और मित्रों के साथ वहां आएंगे। उस समय देवदमनी भी अपनी चार सखियों के साथ आएगी। वह सिकोत्तरी देवी के मंदिर के चौक में इन्द्र के समक्ष नृत्य करेगी। देवराज इन्द्र उसके नृत्य से प्रसन्न होकर उसे उपहार देंगे। उस उपहार को ज्यों-त्यों प्राप्त कर, तुम्हें यहां आ जाना है।' बीच में ही विक्रम ने पूछा- 'महाराज! उस सभा में मनुष्य को स्थान मिलेगा?' 'हां, राजन् ! सिकोत्तर पर्वत पर रहने वाले वनवासी उस उत्सव में भाग लेते हैं। तुम्हें भी वनवासी के वेश में उनके मध्य बैठ जाना है। तुम्हें कोई बाधा नहीं आएगी। देवराज इन्द्र और उनके मित्रो को भी तुम देख सकोगे। देवदमनी को प्राप्त होने वाले उपहार को किस प्रकार प्राप्त करना है, यह तुम्हें ही सोचना होगा। वे उपहार प्राप्त करने के पश्चात् दूसरे दिन जब देवदमनी शतरंज खेलने के लिए तुम्हारे साथ बैठे तब तुम्हें किसी भी बहाने इस चतुर्दशी की बात कहनी होगी और प्राप्त उपहार में से किसी एक वस्तु को दिखाना होगा। वह इससे तत्काल क्षुब्ध होगी और बाजी हार जाएगी। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी बाजी में भी करना है और वह तीनों बाजियां हार जाएगी।' 'महाराज! आप मेरे और राज्य के रक्षक हैं। आपने मुझ पर परम उपकार किया है। अब कल सायं मैं नैवेद्य उपस्थित करूंगा।' विक्रम ने कहा। क्षेत्रपाल ने प्रसन्न दृष्टि से विक्रम की ओर देखते हुए कहा- 'राजन् ! राजा और राज्य का रक्षण करना मेरा कर्तव्य है। जब तक इस सिंहासन पर बैठने वाले राजा इस प्रकार का श्रद्धाभाव रखेंगे तब तक मैं अपने कर्तव्य का पालन करता रहूंगा। जब श्रद्धा का दीपक बुझ जाएगा, तब मेरा कर्त्तव्य भी पूरा हो जाएगा। हे राजन् ! छोटे-बड़े सभी देवता श्रद्धा और भक्ति के वश में होते हैं।' उसी समय दोनों दीपक अपने आप बुझ गए। अंधकार छा गया। साकार क्षेत्रपाल भी अदृश्य हो गया। वीर विक्रम ने क्षेत्रपाल की मूर्ति को पुन: नमन किया और फिर वे मन्दिर से बाहर निकल गए। दूसरे दिन निश्चित समय पर नागदमनी अपनी रूपवती कन्या देवदमनी के साथ उस द्यूत-मंडप में आ पहुंची और वीर विक्रम भी आ गए। आज शतरंज का दूसरा खेल प्रारम्भ करना था। देवदमनी बोली'महाराज! आप एक खेल हार चुके हैं।' वीर विक्रमादित्य २१७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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