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________________ जो युद्ध मात्र दो महीने में समाप्त होने वाला था, उस युद्ध में साढ़े चार महीने लग गए। वीर विक्रम अपने पराक्रम से पर्वतराज को नष्ट कर उसकी अपार सम्पत्ति और तीन कन्याओं से पाणिग्रहण कर पांच महीनों के बाद अवंती में आए। अवंती के अन्त:पुर में अब उनतीस रानियां हो गई थीं। समृद्धि आकाश को छू रही थी। विक्रम की वीरता की चर्चा चारों ओर फैल गई। राजसभा में अनेक कवि, भाट, चारण और पंडित आते, महाराजा वीर विक्रम की गुण-गाथा गाते और उनकी तुलना इन्द्र से करते। मनुष्य के आस-पास जब प्रशंसा के फूल बिखरते हैं, तब वह अपने पराक्रम के नशे में मस्त बन जाता है। एक बार वीर विक्रम महादेवी कमला रानी के शयनागार में विश्राम कर रहे थे। दोनों चर्चा में तन्मयथे। बात-ही-बात में विक्रम ने कमलादेवी से कहा-'प्रिये! जब तुम यहां आयी थी, तब मेरे पास क्या था? आज मैंने अपने भुज-पराक्रम से इतना वैभव एकत्रित कर लिया है कि इसके समक्ष इन्द्र का वैभव भी फीका-फीका लगता है। देखो, मैंने स्वर्णपुरुष प्राप्त किया है। मेरे पास ऐसा सिंहासन है, जो इन्द्र के पास भी नहीं है। मैंने अनेक राजाओं का गर्व-भंग किया है। मेरी कीर्ति आज देश की शोभा बनी हुई है।' कमलावती आश्चर्यभरी दृष्टि से विक्रम की ओर देखती रही। वह मृदु स्वर में बोली-'प्राणनाथ! आप जिससे सदा दूर रहते थे, उस गर्व को आपने सिर पर क्यों बिठा रखा है ? स्वामिन् ! पुरुष बलवान नहीं होता, पुण्य बलवान होता है। इस विशाल विश्व में आपसे भी अधिक बलशाली पुरुष विद्यमान हैं। किन्तु उनकी पुण्य-प्रकृति दुर्बल होने के कारण वे आगे नहीं आ सकते।' राजा खिलखिलाकर हंस पड़ा- 'मेरे से बलवान्....?' ४१. आश्चर्य की परम्परा दूसरे दिन प्रात:काल रानी कमलावती ने अपने स्वामी के मन में उभरे हुए अहंकार का निवारण करने के लिए कुलदेव की आराधना करने का निश्चय किया तथा अहंकार के प्रायश्चितस्वरूप एक तेला (तीन दिन की तपस्या) करने का निर्णय किया। दूसरे दिन ही वह आराधना करने बैठ गई। उसने स्वामी के अहं की बात किसी को नहीं कही। रानी कलावती भी इससे अनजान थी। वह तेले की तपस्या का प्रण लेकर कुलदेव के मंदिर में मौन बैठ गयी। स्त्री पति के केवल सुख में ही हिस्सा नहीं बंटाती, वह उसके दु:ख में भी सहभागी बनती है। स्वामी के कल्याण के लिए वह अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी सदा तत्पर रहती है। कमला रानी स्वामी के अहंकारपूर्ण वचन सुनकर २०२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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