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________________ वाले चामत्कारिक सिंहासन की पूरी बात विक्रम को बताई। सारी बात सुनकर विक्रम बोले- 'वाह-वाह! आप तो महानतम शिल्पी हैं। पुण्ययोग से ही आपका साक्षात्कार हुआ है। क्या सिंहासन तैयार है?' 'हां, महाराज! सिंहासन तो तैयार है, किन्तु उसमें स्वर्ण और रत्नों को जटित करने का कार्य अभी शेष है, क्योंकि मेरे पास उनका अभाव है।' विक्रम ने अमरदेव के कंधे पर हाथ रखकर कहा- 'आज से आप अवंती के शिल्प-सम्राट् हैं। अब आपको यहीं रहना है। मैं आपके स्थायी निवास की पूरी व्यवस्था कर देता हूं। सिंहासन को पूर्ण करने के लिए आपको जितना स्वर्ण चाहिए, जितने रत्न चाहिए, वे सब आपको उपलब्ध होंगे।' विक्रम वहां से चले गए। उन्होंने अमरदेव के लिए सुन्दर व्यवस्था कर दी और सारे साधन जुटाने का निर्देश दे दिया। अमरदेव ने रत्नों का कार्य प्रारम्भ किया। कश्मीर का एक परिवार अवंती का परिवार बन गया। पन्द्रह दिन बीत गए । एक दिन महाराजा विक्रमादित्य अपने उपवन में भ्रमण कर रहे थे। उस समय एक योगी ने आकर विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया। विक्रम ने प्रश्न-भरी दृष्टि से योगी की ओर देखो। योगी की काया ताम्रवर्णी थी। वह सुगठित और सशक्त थी। उसकी जटा भव्य थी। उसने अपने कमंडलु से फल निकाले और विक्रमादित्य के समक्ष रखते हुए कहा- 'राजन् ! यह एक रत्न-फल मैं आपको भेंट करता हूं।' 'योगिराज! आप कहां रहते हैं?' 'यहां से बीस कोस की दूरी पर एक वन-प्रदेश है। ऐसे रत्न-फल वहां सहज-सुलभ हैं । मैं एक रत्न-फल आपको अर्पित करने आ गया हूं।' ___ 'योगिराज! मैं एक संसारी प्राणी हूं। दान लेने का मेरा अधिकार नहीं है। दान देने का अधिकार है, धर्म है।' ___ 'राजन्! राजा, ब्राह्मण, साधु, पुरुष और स्त्री-सभी भेंट लेने के अधिकारी हैं। यह फल अत्यन्त दुर्लभ है। मैं आपको इस फल का चमत्कार बताऊं'-यह कहकर योगी ने फल को तोड़ा और विक्रम ने फटी आंखों से देखा कि फल के बीज रूप में एक चमकीला रत्न था। विक्रम बोले-'योगिराज! अद्भुत फल है यह। आपकी प्रसादी के रूप में मैं इस फल को स्वीकार करता हूं। आप मुझे सेवा का लाभ दें।' 'राजन् ! इस फल के निमित्त मैं एक बात कहना चाहता हूं।' 'प्रसन्नता से कहें। चलें, उस वृक्ष के नीचे बैठें।' १७८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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