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________________ 'स्वप्न विचित्र ही होता है। अच्छा, तुम बताओ तो सही।' 'मैं एक लतामंडप में बैठी थी। एक भ्रमर बार-बार मेरे अधर पर दंश देने का प्रयत्न कर रहा था। मैं उस भ्रमर के आक्रमण से भयभीत हो गई। मैंने उसको दूर भगाने का पूरा प्रयत्न किया, पर वह हठी थी। वह अधर पर दंश देने के लिए और अधिक पागल हो गया। आप उसी लतामंडप में गहरी नींद में सो रहे थे। आपको जागृत करना चाहा, पर मनपीछे हट गया। मैंने भ्रमर को निकटता से देखा। वह भ्रमर नहीं, एक सिंह-शावक था। आश्चर्य से मेरा मुंह खुला और वह भ्रमररूपी सिंह मेरे मुंह में प्रवेश कर गया। मैं घबरा गई।' इस विचित्र स्वप्न को सुनकर विक्रम विचार-मग्न हो गए। उन्होंने प्रसन्न स्वरों में कहा-'प्रिये! यह तो अत्युत्तम स्वप्न है। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। तुम शीघ्र ही माता बनने वाली हो। तुम एक पुत्र का प्रसव करोगी। वह सिंह की तरह तेजस्वी और बलशाली होगा।' सुकुमारी स्वप्न का वह शुभ फल सुनकर आनन्दमग्न हो गई। वह स्वामी के शरीर सेलता की भांति लिपट गई। पांच-छह दिनों के पश्चात् स्वप्न की पृष्ठभूमि का रहस्य सुकुमारी को अनुभूत होने लगा। नियमित होने वाला रजोदर्शन बन्द हो गया। प्रतिदिन उसे वमन होने लगा। यह बात महादेवी ने सुनी। वे राजवैद्य को साथ लेकर पुत्री के निवासस्थान पर आयी। राजवैद्य ने नाड़ी की परीक्षा कर राजकुमारी के सगर्भा होने की बात कही। नारी कितनी ही रूपवती और वैभवशाली क्यों न हो, परन्तु जब मातृत्व का स्वप्न साकार होता है, तब उसके हर्ष का कोई पार नहीं होता। इस प्रकार विक्रमादित्य का नूतन संसार रसमय बना हुआ था और वे अब एक बालक के पिता बनेंगे, इस कल्पना से ही वे अत्यन्त आनन्दित हो रहे थे, पर एक चिन्ता उन्हें विचार-मग्न कर रही थी। वास्तव में यही पुत्र भविष्य में मालव देश का अधिपति होगा-किन्तु मैं तो यहां एक सामान्य कलाकार के रूप में ही हूं। सुकुमारी को वास्तविक परिचय कैसे दिया जाए? यदि मैं वास्तविक परिचय दूं और सुकुमारी का हृदय व्यथित हो जाए तो? छह भवों का अनुभूत अतीत पुन: हृदय में नाच उठे तो मुझे क्या करना चाहिए? भावी युवराज के विषय की बात सुकुमारी को बतानी आवश्यक है, पर उसका परिताप..... विक्रम ने मन-ही-मन एक योजना बनाई। पत्नी को प्रसन्न-प्रफुल्ल बनाकर उसके मन को समझाना और यदि उचित लगे तो उसको यथार्थ से अवगत करा देना। वीर विक्रमादित्य १३३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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