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________________ 'राजकुमारीजी! मेरी अवस्था अभी छोटी है। मैं मुश्किल से बीस वर्ष की हुई हूं। मैंने अभी तक किसी पुरुष को प्रणय की दृष्टि से नहीं देखा है। मेरा व्यवसाय ही ऐसा है कि मुझे देह-लालसा से दूर ही रहना होता है और एक बात यह भी है कि मुझे अभी तक मेरी कल्पना का पुरुष मिला ही नहीं है। विक्रमा ने गंभीर होते हुए कहा। 'तुम्हारी कल्पना का पुरुष ?' 'हां, राजकुमारीजी ! जिसके मन में कला के प्रति प्रेम हो और जो कला का परम पुजारी हो, ऐसा पुरुष प्राप्त हो तभी मेरा मन संतुष्ट हो सकता है।' इस प्रकार विक्रमारूपी विक्रमादित्य धीरे-धीरे अपना हेतु सिद्ध करने के लिए जाल गूंथने लगा। राजकुमारी को कभी भी पुरुष संबंधी बातों में रस नहीं आता था, किन्तु आज उसके हृदय में कुतूहल उत्पन्न हो गया था। उसने पूछा-'सखी ! मैं तुम्हारे आशय को समझी नहीं।' विक्रमा ने हंसते-हंसते कहा-'इस संसार में सभी स्त्री-पुरुषों में कुछन-कुछ पागलपन होता ही है। मेरे मन में भी एक पागलपन है। मैं मानती हूं कि जो पुरुष कला का पुजारी होता है, वह अपनी प्रियतमा को हृदय से लगाए रखता है, क्योंकि स्त्री भी कला की ही प्रतीक होती है। कलाकार के प्राणों में उदारता भरी रहती है। वह सदा मस्त और प्रसन्नचित्त रहता है। वह छोटी-मोटी बातों में कभी नहीं उलझता। यदि कलाकार के साथ जीना होता है तो जीवन में कभी पश्चात्ताप रहता ही नहीं। उसके साथ जीने में प्रियतमा आनन्दित और नि:शंक रह सकती है। कलाकार को शंका का भूत कभी परेशान नहीं करता।' 'वाह! तुम्हारा पागलपन तो समझदारी से भी अच्छा है। अच्छा, सखी! राजाओं और राजकुमारों के विषय में तुम्हारा अभिप्राय क्या है?' 'राजकुमारीजी! अनुभव बिना का अभिप्राय कैसा? किन्तु इतना कह सकती हूं कि राजा और राजकुमार अपनी प्रियतमा के प्रति कुछ चंचल चित्त वाले होते हैं और वे अधिक-से-अधिक पत्नियां करने के रोग से ग्रस्त रहते हैं।' राजकुमारी विचारमग्न हो गई। कुछ क्षणों के मौन के पश्चात् विक्रमा ने पूछा- 'राजकुमारीजी! आप अपनी बात.....।' 'सखी! मेरी बात कुछ है ही नहीं। तुम्हारी बात सुनने के पश्चात् यह भाव अवश्य बना है कि सभी पुरुष खराब नहीं होते, किन्तु अधिकांश व्यक्ति निष्ठुर, स्वार्थी और स्त्रियों को केवल भोग्य-वस्तु मानने वाले ही होते हैं।' १०६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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