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________________ आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा ने भी मुनिराज का उपदेश सुना था। जयकुमार ने बाहर आकर देखा कि वह सर्पिणी किसी अन्य सर्प के साथ रमण कर रही है। यह देखकर हाथ के कमल से जयकुमार ने उस सर्पिणी को पीटा। सर्पिणी देवी के रूप में उत्पन्न हुई। उसने अपने पति नागकुमार से जयकुमार के विरूद्ध वचन कहे। वह मूर्ख स्त्री के कथन का विश्वास कर जयकुमार को मारने हस्तिनापुर गया। हस्तिनापुर में जाकर जब उसने देखा-सुना कि जयकुमार अपनी स्त्रियों को वह सारी घटना सुनाते हुये स्त्रियों के. कौटिल्य की निन्दा कर रहा है, तब घटना की वास्तविकता का ज्ञान होने पर उसने अपनी स्त्री की निन्दा की और जयकुमार के सामने आकर अपना सारा वृत्तान्त सत्य-सत्य कहा और जयकुमार के प्रति मन में भक्ति को धारण करके चला गया। (द्वितीय सर्ग) एक दिन जयकुमार राजसभा में बैठा था। वहाँ काशी-नरेश का दूत आया। उसने कहा कि काशी नगरी के राजा की आज्ञा से मैं आपकी सेवा में आया हूँ। उनकी एक पुत्री है- सुलोचना, जो अद्भुत रूप और गुणों की स्वामिनी है। उसका विवाह वे स्वयंवर-विधि से करना चाहते हैं। अतः सुलोचना-स्वयंवर में शामिल होने हेतु आप भी काशी की यात्रा करें। यह संदेश कहकर दूत चुप हो गया। उन्होंने अपने वक्ष-स्थल का हार उपहार में दूत को दे दिया। तत्पश्चात् अपनी सेना सजाकर जयकुमार काशी की ओर चल पड़े। काशी में काशी-नरेश ने उनका बड़ा स्वागत किया। (तृतीय सर्ग) सुलोचना-स्वयंवर-समारोह का समाचार अयोध्या-नरेश भरत के पास भी पहुँचा । भरत ने यह समाचार अपने पुत्र अर्ककीर्ति को सुनाया। अर्ककीर्ति ने वहाँ जाने की इच्छा प्रकट कर पिता से अनुमति माँगी। उनके सुमति नाम के मंत्री ने कहा कि वहाँ बिना बुलाये नहीं जाना चाहिये। किन्तु दुर्मति नाम के मंत्री ने जाने के सम्बन्ध में अपनी सहमति प्रकट की। इतने में ही काशी-नरेश ने वहाँ पहँचकर समारोह में उपस्थित होने का निमन्त्रण दिया। अपने सभासदों से विचार-विमर्श के बाद अर्ककीर्ति भी स्वयंवर-समारोह में भाग लेने काशी पहुँच गया। (चतुर्थ सर्ग)
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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