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________________ 304 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । कालेन फलति तीर्थः, सद्यः साधु-समागमः।। सुख, समृद्धि, वैभव, विभूतियाँ, धर्म तथा प्रेमामृत की धारा वहीं पर है जहाँ अपने आत्मोत्थान में तत्पर महान् आत्मा अनेक आत्म-विभूतियों के धारी साधु हैं। गुरू-भक्ति से ही ऐहिक-पारलौकिक सुख प्राप्त होते हैं। यथा - सुखं समृद्धिर्विभवो विभूति-धर्मो र्मितः स्नेहपरंपरा वा। तत्रैव यत्रास्ति महाविभूतिः, साधुः स्वकीयात्मपरो महात्मा।। ___-भा.वि.श्लो. 2261 गुरूपदेश से अनन्त प्राणियों का उद्धार होता है। पतित और पथभ्रष्ट भी साधु का उपदेश पाकर उन्नत हो जाते हैं, सन्मार्ग में लग जाते हैं, उनके सारे झगड़े दूर हो जाते हैं। जब गुरू इतना पतितोद्धारक है, तो फिर वह क्यों न पूजा जाय? उसकी भक्ति करना और उनकी विघ्न-बाधाओं को दूर कर अपने मार्ग में लगाये रखना प्रत्येक प्राणी का कर्त्तव्य है। जिनका अन्तरंग और बहिरंग पवित्र हैं, ऐसे साधु के संयोग से भव्य जीवों का अपने आप उद्धार हो जाता है। क्षणस्थिरे वस्तुनि मा समीहां करोतु कश्चित्त्विति ये वदन्ति । आध्यात्मिकोत्थानपराः प्रकाशं, लोकात्तरं ते वितरन्ति लोके ।। –भा.वि.श्लो. 2291 संसार का प्रत्येक पदार्थ नाशवान है। इसमें आसक्ति न रखना ही कल्याणकारी है। संसार के उद्धार की तीव्र इच्छा जिनके हैं, वे पूजनीय हैं। अतः गुरू के सम्पूर्ण गुणों में अनुराग करना, उपसर्ग विघ्न आदि आ जाने पर उनको दूर करना ही सच्ची गुरू-भक्ति है। वीरोदय में गुरूभक्ति का महत्त्व वीरोदय के प्रारम्भ में ही गुरू के प्रति सम्मान प्रकट किया गया है और प्रत्येक व्यक्ति को उन्हें अपना आदर्श मानने, उनके प्रति कृतज्ञता
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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