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________________ वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन समवशरण में चार वापिकाओं से युक्त, चित्रकला द्वारा निर्मित मानहारी मान-स्तम्भ चारों दिशाओं में सुशोभित थे। भित्ति पर अशोक वृक्ष इतना रमणीय बना था कि जिसके दर्शनमात्र से शोक - समूह नष्ट हो जाता था। इस प्रकार आचार्यश्री ने अनेक कलाओं का यथास्थान चित्रण किया है। सूक्तियाँ 288 - 1. आत्मन् वसेस्त्वं वसितुं परेभ्यः देयं स्ववन्नान्यहृदत्र तेभ्यः । भवेः कदाचित् स्वभवे यदि त्वं प्रवांछसि स्वं सुखसम्पदित्वम् ।। 16/211 हे आत्मन्! यदि तुम यहाँ से रहना चाहते हो तो औरों सुख को सुख से रहने दो। यदि तुम स्वयं दुःखी नहीं होना चाहते हो तो औरों को भी दुःख मत दो अर्थात् तुम स्वयं जैसा बनना चाहते हो उसी प्रकार का व्यवहार दूसरों के साथ भी करो । 2. उच्छालितोऽर्काय रजः समूहः पतेच्छिरस्येव तथाऽयमूहः । - कृतं परस्मै फलति स्वयं तन्निजात्मनीत्येव वदन्ति सन्तः ।। 16/511 • जैसे सूर्य के ऊपर फेंकी गई धूली फेंकने वाले के सिर पर ही आकर गिरती है, इसी प्रकार दूसरों के लिये किया गया बुरा कार्य स्वयं अपने लिये ही बुरा फल देता है । इसीलिये दूसरों के साथ सदा भला ही व्यवहार करना चाहिये । यही सज्जनों का कथन है। 3. आचारं एवाभ्युदयप्रदेशः ।। 17/29।। उसके अभ्युदय का कारण है । ---- - 4. ऋते तमः स्यात् क्व रवेः प्रभावः । । 1/18 ।। अन्धकार न हो तो सूर्य का प्रभाव का कैसे प्रकट हो सकता है ? वैसे ही यदि दुर्जन न हों तो सज्जनों की सज्जनता का प्रभाव भी कैसे जाना जा सकता है ? सन्दर्भ 1. वीरोदय सर्ग 2 पृ. 14-16 1 2. वीरोदय त्रयोदश सर्ग. पृ. 125-127। मनुष्य का आचरण ही
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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