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________________ 282 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन संयमित हो गई हैं और जिसमें निष्पक्षता जाग्रत हो गई है वही व्यक्ति सहनशील हो सकता है। ___ आचार्यश्री ने वीरोदय में भी लिखा है कि जो मनुष्य अपने हृदय से ईर्ष्या, अहंकार आदि को दूर कर, हर्ष व क्रोध के निमित्तों में समान बुद्धि रखता है, निर्द्वन्द भाव से विचरता हुआ आत्मा को जीतता है, वही संसार में 'जिन' कहा जाता है। उन जिन के द्वारा प्रतिपादित कर्त्तव्य विधान को ही 'जैन-धर्म' कहते हैं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन में सहिष्णु या सहनशील होता है - इत्येवं प्रतिपद्य यः स्वहृदयादीामदादीन् हरन् । हर्षामर्षनिमित्तयोः सममतिर्निर्द्वन्द्वभावं चरन्।। स्वात्मानं जययीत्यहो जिन इयन्नाम्ना समाख्यायते। तत्कर्तव्यविधिर्हि जैन इत वाक् धर्मः प्रसारे क्षितेः।। 45 ।। वीरो.सर्ग:-171 सूक्तियाँ - 1. त्यागोऽपि मनसा श्रेयान् न शरीरेण केवलम्। __ मूलोच्छेदं बिना वृक्षः पुनर्भवितुमर्हति।। 13/37।। - किसी वस्तु का मन से किया हुआ त्याग ही कार्यकारी होता है। केवल शरीर से किया गया त्याग कल्याणकारी नहीं होता, क्योंकि मूल (जड़) के उच्छेद किये बिना ऊपर से काटा गया वृक्ष पुनः पल्लवित हो जाता है। 2. अनेक धान्येषु विपत्तिकारी विलोक्यते निष्कपटस्य चारिः । - छिद्रं निरूप्य स्थितिमादधाति सभाति आखोः पिशुनः सजातिः।। 1/19 || - दुर्जन चूहे जैसे होते हैं। जैसे चूहा नाना जाति की धान्यों का विनाश करता है, बहुमूल्य (निष्क) (वस्त्रों) का अरि है, शत्रु है, उन्हें काट डालता है और छिद्र अर्थात बिल देखकर उसमें अपनी स्थिति कायम रखता है। ठीक इसी प्रकार पिशुन पुरूष भी मूषक के सजातीय प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे पिशुन भी नाना प्रकार से अन्य साधारणजनों के विपत्तिकारक
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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