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________________ 276 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन प्रथम तीर्थकर मुनिराज ऋषभदेव दीक्षा लेते ही एक वर्ष, एक माह और आठ दिन तक निराहार रहे, फिर भी हजार वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ। भरत चक्रवर्ती को दीक्षा लेने के बाद आत्मध्यान के बल से एक अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान हो गया था। तप के दो भेद हैं - 1. अन्तरंग, 2. बहिरंग तप । बहिरंग तप छह प्रकार का होता है। 1. अनशन, 2. अवमौदर्य, 3. वृत्तिपरिसंख्यान, 4. रस-परित्याग, 5. विविक्तशय्यासन, 6. काय-क्लेश। अनशन से अवमौदर्य, अवमौदर्य से वृत्ति-परिसंख्यान, वृत्तिपरिसंख्यान से रस–परित्याग अधिक महत्त्वपूर्ण है। अनशन में भोजन का पूर्णतः त्याग होता है, पर अवमौदर्य में एक बार भोजन किया जाता है, भरपेट नहीं, इस कारण उसे ऊनोदर भी कहते हैं। भोजन को जाते समय अनेक प्रकार की अटपटी प्रतिज्ञायें ले लेना, उसकी पूर्ति पर ही भोजन करना, अन्यथा उपवास करना वृत्ति-परिसंख्यान है। षटरसों में कोई एक-दो या छहों ही रसों का त्याग करना, नीरस भोजन लेना रस-परित्याग है। निर्दोष एकान्त स्थान में प्रमाद रहित सोने-बैठने की वृत्ति विविक्तशय्यासन तथा आत्म-साधना एवं आत्माराधना में होने वाले शारीरिक कष्टों की परवाह नहीं करना कायक्लेश तप है। इच्छाओं का निरोध होकर वीतरागभाव की वृद्धि होना उपवास का मूल प्रयोजन है। वीरोदय में तपों का वर्णन वीर भगवान आत्म-पथ का आश्रय लेकर एक मास, चार मास और छह मास तक भोजन के बिना ही प्रसन्न–चित रहकर काल को व्यतीत कर रहे थे - मासं चतुर्मासमथायनं वा विनाऽदनेनाऽऽत्मपथावलम्बात् । प्रसन्नभावेन किलैकतानः स्वस्मिन्नभूदेष सुधानिधानः।। 37 || गत्वा पृथक्त्वस्य वितर्कमारादेकत्वमासाद्य गुणाधिकारात्। निरस्य घातिप्रकृतीरघातिवर्ती व्यभाछीसुकृतैकतातिः।। 38 ।। -वीरो.सर्ग.121
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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