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________________ वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन 253 इसी प्रकार देवताओं ने भी कुण्डनपुर आकर जगत् को आह्लादित करने वाले पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान समुन्नत जिन-चन्द्र को देखकर आनन्द का अनुभव किया था। समाज व सामाजिक संगठन अमरकोश के अनुसार ‘पशुभिन्नानां संघः' पशु-पक्षी से भिन्न मानवों का समुदाय या संघ समाज है। समाज शब्द व्यापक है। व्यक्तियों के विश्वास एवं स्वीकृतियाँ समाज में विद्यमान होती हैं। सामाजिक सम्बन्धों का एक निश्चित स्वरूप है। सृष्टि का सबसे बड़ा विकसित रूप मानव-जीवन है। कर्तव्यों का निर्वाहन, जीवन-विस्तार का सर्वोत्तम रूप है। समाज का गठन जीवन्त मानव के अनुरूप होता है। समाज के लिए कुछ मान्य नियम या स्वयं सिद्धियाँ होती हैं, जिनका पालन उस समुदाय विशेष के व्यक्तियों को करना पड़ता है। जिस समुदाय में एक-सा धर्म, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, रीति-रिवाज समान धरातल पर विकसित और वृद्धिंगत होते हैं, वह समुदाय एक समाज का रूप धारण करता है। विश्व बन्धुत्व की भावना जितनी अधिक बढ़ती जाती है, समाज का क्षेत्र उतना ही अधिक विस्तृत होता जाता है। भावनात्मक एकता ही समाज-विस्तार का घटक है। मनुष्य का विस्तार क्षुद्र से विराट् की ओर होता है। सुख-दुख की धारणाओं को समत्व रूप में जितना अधिक बढ़ने का अवसर मिलता है, समाज की परिधि उतनी ही बढ़ती जाती है। व्यक्ति-केन्द्रित चेतना जब समष्टि की ओर मुड़ती है, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व का संकल्प जागृत होता है, पास्परिक सुख-दुःखात्मक अनुभूति की संवेदनशीलता बढ़ती है, तो सामाजिकता का विकास भी होता जाता है। समाज एक व्यक्ति के व्यवहार पर निर्भर नहीं करता, किन्तु बहुसंख्यक मनुष्यों के व्यवहारों के आधार पर ही उसका गठन होता है। वस्तुतः समाज, मनुष्यों की सामुदायिक क्रियाओं, सामूहिक हितों, आदर्शों एवं एक ही प्रकार की आचार-प्रथाओं पर अवलम्बित है। अनेक व्यक्ति जब एक ही प्रकार की जनरीतियों (folk ways) और रूढियों (Moreo) के
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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