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________________ 208 ___वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन वभूव कस्यैव बलेन युक्तश्च नाऽधुनासौ कवले नियुक्तः । सुरक्षणोऽसावसुरक्षणोऽपि जनैरमानीति वधैकलोपी।। 48 ।। -वीरो.सर्ग.121 भगवान उस समय कबल अर्थात् आत्मा के बल से तो युक्त हुए, किन्तु कवल अर्थात् अन्न के पास से संयुक्त नहीं हुए अर्थात् केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भगवान कवलाहार से रहित हो गये। फिर भी वे निर्बल नहीं हुए। प्रत्युत आत्मिक अनन्त बल से युक्त हो गए। वे सुरक्षित होते हुए भी असुरक्षित थे। यह विरोध है कि जो सुरों का क्षण (उत्सव-हर्ष) करने वाला हो, वह असुरों का हर्ष वर्द्धक कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि वे देवों के हर्षवर्द्धक होते हुए भी असु-धारी (प्राणी) मात्र के भी पूर्ण रक्षक एवं हर्ष-वर्द्धक थे। इसीलिए लोगों ने उन्हें वध (हिंसा) मात्र का लोप करने वाला और पूर्ण अहिंसक माना। यहाँ विरोध जैसा प्रतिभासित हो रहा है पर यथार्थ में विरोध नहीं है। ये विरोधाभास अलंकार है। 17. परिसंख्या अलंकार जब पूछी या बिना पूँछी कही गयी बात उसी प्रकार की अन्य वस्तु के निषेध में पर्यवसित होती है, तो वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है। लक्षण – किंच पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पते। तादृगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता।।18 आचार्यश्री ने कुण्डनपुर, चम्पापुर और चक्रपुर नगरों की समृद्धि का वर्णन करते समय इस अलंकार का प्रयोग किया है। कुण्डनपुर के वर्णन में परिसंख्या का प्रयोग इस प्रकार है - उदाहरण काठिन्यं कुचमण्लेऽथ सुमुखे दोषाकरत्वं परं। वक्रत्वं मृदुकुन्तलेषु कृशता वालावलग्नेष्वरम् ।।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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