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________________ वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन 183 छन्द ___ पुरूष को गतिशील बनाने का महत्त्वपूर्ण और मूर्त साधन है - उसके चरणद्वय । इसी प्रकार काव्य-पुरूष की गति अवरूद्ध न हो, उसमें प्रवाह हो इसके लिए कवि छन्दों का अवलम्बन लेता है। गद्य-काव्यों में इसकी आवश्यकता नहीं होती, किन्तु पद्य-काव्य पूर्णतया इनका सहारा लेकर लिखा जाता है। छन्दों की इसी महत्ता के कारण महर्षि पाणिनि ने छन्दों को वेदों का चरण कहा है। छन्द पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते। ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरूक्तं श्रोत्रमुच्यते।। शिक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।। रस पुरूष केवल अपने शरीर के बल पर जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवित रखने वाली एक अमूर्त शक्ति आत्मा होती है। इसी प्रकार काव्य भी केवल शब्दार्थमय शरीर से ही ग्राह्य नहीं बनता और न केवल छन्द और अलंकार ही उसे ग्राह्य बना सकते हैं। वरन् काव्य को ग्राह्य बनाने के लिए भी आत्म–शक्ति आवश्यक है। उस आत्म-शक्ति को साहित्यिक भाषा में 'रस' कहते हैं। इसके बिना काव्य या तो निष्प्राण होता है, या बौद्धिक व्यायाम का साधन । अतः बुद्धि और सहृदयता से युक्त अच्छे पुरूष के समान एक अच्छा काव्य भी वही है, जिसमें बुद्धि-पक्ष और हृदय-पक्ष का समन्वय हो। वर्ण्य-विषय - प्रत्येक काव्य का कोई न कोई वर्ण्य–विषय होता है। चाहे काव्य किसी कथा पर आधारित हो, या किसी की भक्ति पर, या देश-प्रेम पर । वर्ण्य-विषय न होने पर कवि किसका वर्णन करेगा ? शैली – काव्य लिखने का मुख्य उद्देश्य है – 'सद्यः परनिर्वृत्ति।' इस उद्देश्य तक पहुँचने के लिए कवि को काव्य में कोई मार्ग चुनना पड़ता है। साहित्य में इसी मार्ग का प्रचलित नाम है "शैली।"
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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