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________________ 156 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन यशोगान करती हुई नाच रही थीं। सप्तपर्ण, आम्र, अशोक और चम्पक जाति के वृक्षों से युक्त चारों दिशाओं में चार वन थे। जिनमें उन-उन नाम वाले चैत्य-वृक्ष सुशोभित हो रहे थे - सप्तच्छदाऽऽम्रोरूक-चम्पकोपपदैर्वनैर्यत्र कृतोपरोपः । मनोहरोऽतः समभूत्प्रदेशस्तत्तत्कचैत्यद्रुमयुक्तलेशः ।। 11 ।। -वीरो.सर्ग.13। उस समवशरण में प्रत्येक द्वार पर भवनवासी देव वीर भगवान की सेवा कर रहे थे। स्फटिक मणियों से बना तीसरा कोट इन भगवान की सेवा करते हुए कुण्डलाकार शेषनाग के समान अवस्थित था। कोट के आगे जिनेन्द्र देव को घेरे हुये चारों ओर उत्तम बारह कोठे थे। जिनमें चतुर्निकाय के देव, उनकी देवियाँ, मुनि, आर्यिका वा श्राविका, मनुष्य और पशु बैठकर भगवान का धर्मोपदेश सुनते थे। इस समवशरण के मध्य गन्धकुटी में सिंहासन के तलभाग से ऊपर अन्तरिक्ष में अवस्थित भगवान इस समवशरण की रचना विधान को उच्छिष्ट के समान छोड़ते हुए से शोभायमान हो रहे थे। ततः पुनर्वादश कोष्ठकानि जिनेन्द्रदेवं परितः शुभानि। स्म भान्ति यद्वद्रविमाश्रितानि मेषादिलग्नानि भवन्ति तानि।। 16 ।। मध्येसभं गन्धकुटीमुपेतः समुत्थितः पीठतलात्तथेतः । बभौ विमुद्देष्टमिदं विधानं समस्तमुच्छिष्टमिवोज्जिहानः।। 17।। -वीरो.सर्ग.13। वीर प्रभु के मुख के प्रभामंडल की दीप्ति कोटि-सूर्यों की दीप्ति से भी अधिक थी। इसमें लोग अपने जन्म-जन्मान्तरों को भी देखने में समर्थ थे। इसमें प्रत्येक को अपने तीन पूर्वभव, तीन आगे के भव और एक वर्तमान भव- कुल सात भव दिखाई देते थे। छत्रत्रय, लोकत्रय के नेत्रों को आनन्दकारी थे तथा दिव्यध्वनि मोह के प्रभाव की निवारक, सर्वभू-व्यापी आनन्ददायी पापरहित निर्दोष समुद्र के समान गम्भीर ध्वनिकारक थी।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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