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________________ 118 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार मारीचि का जीव लगातार पाँचों मनुष्य-भवों में अपने पूर्व दृढ़ संस्कारों से प्रेरित होकर उत्तरोत्तर मिथ्यात्व का प्रचार करते हुए दुर्मोच दर्शनमोहनीय के साथ सभी पापकर्मों का उत्कृष्ट बन्ध करता रहा, जिसके फलस्वरूप चौदहवें भव वाले स्वर्ग से चयकर मनुष्य हो तिर्यग्योनि के असंख्यात भवों में लगभग कुछ कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल तक परिभ्रमण करता रहा। तत्पश्चात् कर्मभार कम होने पर मारीचि का जीव पन्द्रहवें भव में स्थावर नामक ब्राह्मण हुआ। इस भव में तपस्वी बनकर मिथ्या मत का प्रचार करते हुए मरकर सोलहवें भव में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ। विश्वनन्दी सत्तरहवें भव में इसी भरत क्षेत्र में मगध देश के राजगृह नगर में विश्वभूति राजा के जैनी नामक स्त्री से विपुल पराक्रमधारी विश्वनन्दी नाम का पुत्र हुआ। इसी राजा विश्वभूति का एक छोटा भाई भी था। उसकी लक्ष्मण स्त्री से विशाखनन्दी नाम का एक मूर्ख पुत्र उत्पन्न हुआ। किसी निमित्त से विरक्त होकर राजा विश्वभूति ने अपना राज्य छोटे भाई को और युवराज पद अपने पुत्र विश्वनन्दी को देकर जिन-दीक्षा ले ली। किसी समय युवराज विश्वनन्दी अपने उद्यान में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। उसे देखकर ईर्ष्या से सन्तप्त-चित्त हुए विशाखनन्दी ने अपने पिता से जाकर कहा कि उक्त उद्यान मुझे दिया जाय अन्यथा मैं घर छोड़ कर चला जाऊँगा। पुत्रमोह से प्रेरित होकर राजा ने उसे देने का आश्वासन दिया और एक षडयन्त्र रचकर विश्वनन्दी को एक शत्रु राजा को जीतने के लिये बाहर भेज दिया और वह उद्यान अपने पुत्र विशाखनन्दी को दे दिया। शत्रु को जीतकर वापिस आने पर विश्वनन्दी को इस षडयन्त्र का पता चला तो वह आग-बबूला हो गया और विशाखनन्दी को मारने के लिये उद्यत हुआ। भय के मारे अपने प्राण बचाने के लिये विशाखनन्दी एक कैंथ के पेड़ पर चढ़ गया। विश्वनन्दी ने हिला-हिलाकर उस पेड़ को उखाड़ डाला और उसे मारने के लिये ज्यों ही उद्यत हुआ कि वह वहाँ
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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