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________________ 108 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन लिये अनधिकारी और सामान्यतः पतित माना जाता है परन्तु कोई व्रात्य ऐसा हो, जो विद्वान और तपस्वी हो, ब्राह्मण भले ही उससे द्वेष करें, पर वह सर्व-पूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।' अतएव स्पष्ट है कि व्रात्य वे आर्यजातियाँ थीं, जो मध्यदेश के कुलीन ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के आचार का अनुशरण नहीं करती थीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा की भाषा प्राकृत थी और वेश-भूषा आर्यों की दृष्टि से परिष्कृत न थी। वे मध्य देश के ब्राह्मणों के वजाय अरहन्तों को मानते थे तथा चेतियों (चैत्यों) की पूजा करते थे। वस्तुतः महावीर के पूर्व सामाजिक क्रान्ति परिलक्षित होने लगी थी और वैदिक आर्यों की शुद्ध संतति समाप्त हो गई थी। व्यवसाय कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्गों में समस्त भारतीय समाज विभक्त हो रहा था। वर्णाश्रम धर्म समाज पर छाया हुआ था। यद्यपि इसके विरोध में क्रान्ति की ध्वनि गूंज रही थी, पर इस प्रथा के विरोध में खड़े होने की क्षमता किसी व्यक्ति विशेष में अवशिष्ट नहीं थी। धार्मिक स्थिति ई. पूर्व. 600 के आस-पास भारत की धार्मिक स्थिति बहुत ही अस्थिर और भ्रान्त थी। एक ओर यज्ञीय कर्मकाण्ड और दूसरी ओर कतिपय विचारक अपने सिद्धान्तों की स्थापना कर जनता को संदेश दे रहे थे। चारों ओर हिंसा, असत्य, शोषण, अनाचार एवं नारी के प्रति किये जाने वाले जोर-जुल्म अपना नग्न ताण्डव प्रस्तुत कर रहे थे। धर्म के नाम पर मानव अपनी विकृतियों का दास बना हुआ था। मानवता कराह रही थी, उसकी गरिमा खडित हो गई थी। धर्म राजनीति का एक थोथा हथियार मात्र रह गया था। भय और आतंक के कारण जनता धार्मिक क्रियाकाण्ड का पालन करती थी, पर श्रद्धा और आस्था उसके हृदय में नहीं थी। स्वार्थ-लोलुप धर्मगुरू और धर्माचार्य ही धर्म के ठेकेदार बन बैठे थे। मानव की अन्तश्चेतना मूर्छित हो रही थी, दासता की वृत्ति दिनों-दिन बढ़ रही थी। दिग्भ्रान्त मानव का मन भटक रहा था, कहीं भी उसे ज्ञान का आलोक प्राप्त नहीं हो रहा था। तीर्थंकर
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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