SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा मरने के नाम को सुनकर काँपने लग जाता है, वह अन्य प्राणियों का संहार करने के लिये कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? यथा 87 समस्ति शाकैरपि यस्य पूर्तिर्दग्धोदरार्थे कथमस्तु जूर्तिः । प्राणिप्रणाशाय विचारकर्तुः प्रवेपमानस्य च नाम मर्तुम् । । 27 ।। दयो. च. द्वितीय लम्ब यदि मेरे प्राण भी जाते हों तो चले जावें, कोई हानि नहीं है; क्योंकि जन्म मरण करने वाला संसारी प्राणी यों ही जन्मता और मरता रहता है, बार-बार शरीर धारण करता है किन्तु यह सज्जन - शिरोमणि गुरू महाराज का दिया हुआ व्रत यदि छोड़ दिया जाता है, तो इस जन्म में कलंक का और उत्तर जन्म में पाप का कारण होता है । । ययुर्यदा यान्ति ममासवो ननु जनुष्मता सन्ध्रियते मुहुस्तनुः । सुदुर्लभं सन्मनुदेशितं व्रतं कलंकपंकाय किलोपसंहृतम् ।। 29 । । - दयो. च. द्वितीय लम्ब इस प्रकार जिसके मन में विचार उत्पन्न होते जा रहे हैं, जिससे मन शान्त होता जा रहा है, जो बार-बार साधु महाराज की बात याद कर रहा है और संसार - दशा का विचार करने में लगा होने से आज तक भोगों में विताये समय के विचार को लेकर जिसे ग्लानि उत्पन्न हो रही है, ऐसा वह मृगसेन धीवर धीरे-धीरे जाकर किसी एक सूनी धर्मशाला में पहुँचा । प्रातः काल से सायंकाल तक अथक परिश्रम करने से थक तो चुका ही था, इसलिये वहाँ पर एकान्त पाकर विश्राम करने के लिये अपनी दोनों टांगें फैलाकर एक डंडे की तरह सीधा लेट गया । इतने में खाई के समान विष से भरा एक भयंकर साँप बिल में से निकलकर उसे काट गया, जिससे वह मर गया । सहसा उसे मरा हुआ देखकर और अपनी गलती को याद कर करके घण्टा सिर कूट-कूट कर रोने लगी। थोड़ी देर बाद वह विचारने लगी "जो हो गया सो हो गया, गई बात को याद करने से क्या लाभ
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy