SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ? 84 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन में लिखा' मेरी भार्या ! यदि तुम मुझसे स्नेह करती हो और पुत्र महाबल .! यदि तुम मुझे अपना पिता समझते हो तो मेरी अपेक्षा के बिना ही धूम-धाम से मेरी पुत्री श्रीमती इसको विवाह देना ।" ऐसा करके वह वेश्या पत्र को पूर्ववत् रखकर चली गई । धनकीर्ति सोकर उठा और घर जाकर उसने वह पत्र माता को सौंप दिया। शीघ्र ही उसका विवाह श्रीमती के साथ कर दिया । इस वृत्तान्त को सुनकर श्रीदत्त ने व्याकुल- मन से लौट कर नगर के बाहर चण्डिका के मन्दिर में एक पुरूष को धनकीर्ति के वध के लिये नियुक्त कर दिया । घर जाकर उसने धनकीर्ति से कहा कि "मेरे घर की यह रीति है कि विवाह के बाद लड़का रात्रि में कात्यायनी के मन्दिर में जाता है ।" तद्नुसार धनकीर्ति पूजा की सामग्री लेकर निकला तो नगर के बाहर साले महाबल ने उसे देखा और पूँछा कि इस समय अंधेरा हो जाने पर अकेले कहाँ जा रहे हो ? उसने बताया कि माता की आज्ञा से दुर्गा - मन्दिर में जा रहा हूँ । महाबल ने धनकीर्ति को रोक दिया और स्वयं मन्दिर चला गया। धनकीर्ति तो निर्बाध वापिस घर पहुँच गया और उधर महाबल यमलोक पहुँच गया । पुत्र - शोक में विह्वल श्रीदत्त ने एकान्त में अपनी पत्नी से कहा कि यह धनकीर्ति किस प्रकार मारा जाए ? उसने कहा कि "आप चुप ही रहें, आपका वांछित कार्य मैं करूँगी" । तत्पश्चात् उसने विष डालकर लड्डू बनाये और अपनी पुत्री श्रीमती से कहा कि उज्ज्वल कान्ति वाले लड्डू अपने पति को देना और श्यामवर्ण वाले लड्डू अपने पिता को देना । पुत्री को निर्देश देकर वह स्नान के लिये नदी को चली गई। माता की दुश्चेष्टा से अनभिज्ञ श्रीमती ने उज्ज्वल कान्ति वाला लड्डू अपने पिता को दे दिया। उसे खाते ही सेठ श्रीदत्त की मृत्यु हो गई । श्रीमती की माता विशाखा ने घर आकर जब स्वामी को जीवित नहीं देखा, तो शोकाकुल होकर अपने पति के क्रूर कर्म की निन्दा की श्रीमती को आशीर्वाद दिया और स्वयं भी विषमय लड्डू खाकर यमलोक चली गई ।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy