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________________ सामाजिक नैतिकता की वर्तमान में प्रासंगिकता : जैन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में १२७ स्पष्ट कहा गया है- जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा में ही अपनी विद्वता दिखाते हैं तथा लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं संसार चक्र में भटकते हैं। वस्तुतः सत्य तो सर्वत्र देदीप्यमान है, जो भी मनुष्य उन्मुक्त दृष्टि से देखने का प्रयास करेगा, वही उसे प्राप्त भी करेगा। सत्य केवल सत्य है, वह न मेरा है और न दूसरे का । जैन विचारानुसार, जिस प्रकार अहिंसा का सिद्धान्त कहता हैजीवन जहाँ कहीं हो, उसका सम्मान करना चाहिए, ठीक उसी प्रकार अनाग्रह का सिद्धान्त कहता है- सत्य जहाँ कहीं हो उसका सम्मान करना चाहिए।' जैन तत्त्वज्ञान अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों वाली मानी गई है जबकि राग- -द्वेष के निमित्त उद्भूत एकान्त व आग्रह सत्ता के एक ही पक्ष को ग्रहण करते हैं। इस स्थिति में जहाँ अनन्त सत्ता के अनेकानेक पक्षों का अपलाप मात्र होता है, वही मनुष्य का ज्ञान भी संकुचित एवं सीमावस्था को प्राप्त होता है, क्योंकि आग्रह की उपस्थिति में अनन्त सत्ता को जानने की जिज्ञासा ही नहीं होती है। इसके विपरीत जैनविचारणानुसार तत्त्व पक्षातिक्रान्त है, वह परम सत्य है, अतः उसे आग्रह द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसका दर्शन तो केवल सत्य का साधक वीतरागी अथवा अनाग्रही कर सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म अनेकान्त के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, उद्देश्य होता है अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि को प्रस्तुत करना जिसके द्वारा वैचारिक असहिष्णुता को समाप्त किया जा सके, क्योंकि वैचारिक असहिष्णुता की उपस्थिति से ही सामाजिक व पारिवारिक जीवन विषाक्तावस्था को प्राप्त होता है। पुनश्च, सामाजिक नैतिकता के क्षेत्र में यही अनासक्ति अपरिग्रह के रूप परिणत होती है। जैन धर्म में निरूपित पंचमहाव्रतों में से प्रथम तीन (अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) अनासक्ति के व्यवहारिक रूप हैं। आसक्ति के बाह्य रूपों ( अपहरण, भोग और संग्रह) का निग्रह उक्त तीनों महाव्रतों द्वारा होता है। वस्तुतः आसक्ति तृष्णा का प्रतिरूप है। इसके सम्बन्ध में दशवैकालिक में कहा गया है - आसक्ति का दूसरा नाम लोभ और लोभ ही समग्र सद्गुणों का विनाशक है। जबकि सूत्रकृतांग के अनुसार मनुष्य जब तक किसी प्रकार की आसक्ति रखता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता है।"" यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की एक वृत्ति है, जिसका दुष्प्रभाव सामाजिक जीवन पर पडता है। वस्तुतः जैनाचार्यों ने आसक्ति के विसर्जन हेतु जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, निश्चित रूप से उसके मूल में यही अनासक्ति की प्रधान दृष्टि कार्य कर रही थी, साथ ही इसको आवश्यक समझकर ही
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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