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________________ अनेकान्तवाद : सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव का दर्शन ११५ इस प्रकार स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद दोनों ही एक ही कथ्य को प्रकाशित करने वाले अलग-अलग सिद्धान्त हैं। अनेकान्तवाद तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से जबकि स्यावाद ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। जैन मत के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० मोहनलाल मेहता का मानना है कि प्रयोग की दष्टि से 'स्याद्वाद शब्द अधिक प्राचीन है, क्योंकि आगमों में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग देखने में आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन का यह उदार एवं सहिष्णु सिद्धान्त-द्वय न केवल विभिन्न भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक सम्प्रदायों, अपितु सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक ऐसे आदर्श की प्रस्तुति करते हैं जिनमें सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभावन के तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ४. अनेकान्तवाद : सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव के दार्शनिक आधार ___ जब हम किसी दार्शनिक सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं तब उसकी ज्ञानमीमांसा एवं तदनुरूप तत्त्वचिन्तन का सम्यक् अवलोकन करते हैं। तत्पश्चात् हम उस तत्त्वमीमांसा के सानुकुल एक नीतिमीमांसा की भी परिकल्पना करते हैं और उसकी व्यवहार्यता के द्वारा उस सिद्धान्त की सफलता का आकलन करते हैं। इस परीक्षण के अनुक्रम में जैन दर्शन का तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त जो ‘अनेकान्तवाद' के रूप में पूर्व में उल्लिखित एवं विश्लेषित हो चुका है, अपने समानांतर ज्ञान-सिद्धान्त- ‘स्याद्वाद' के रूप में भी परीक्षणोतीर्ण हो चुका है। अब इस खण्ड में इस सिद्धान्त की व्यवहार्यता का परीक्षण नीति एवं समाज दर्शन के क्षेत्र में अवलोक्य है जिसका निहितार्थ विभिन्न विरोधाभासों के बाद भी भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सह-अस्तित्व एवं सह-जीवन हेतु सर्वसमावेशी सिद्धान्त के रूप में विचारणीय है। ४.१ सहभाव (सह-अस्तित्व) दृश्य प्रकृति के स्वभाव में ही विरोधी तत्त्व विद्यमान हैं, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि प्रकृति के अन्दर ही सैकड़ों-लाखों विरोधाभासों के बावजूद सहअस्तित्व या सहभाव का नियम है। वहाँ बहुलता है; सर्वसमावेशी भावना है, क्योंकि जीवन के लिए परस्पर निर्भरता (परस्परोपग्रहो जीवनम्) की अत्यन्त आवश्यकता होती है। सम्पूर्ण जगत् या प्रकृति परस्पर-निर्भरता एवं सहभाव के नियम से संचालित है। यही उसकी वैविध्यपूर्ण एकता का सौन्दर्य है। प्रतिपक्षता को प्रकृति का स्वाभाविक गुण मान लेने से अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का उदय होता है जिसके फलस्वरूप शांतिपूर्ण सहभाव की भावना जागृत होती है। अनेकान्तवाद के मूल में तीन बातें
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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