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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 13 माटी स्वयं भीगती है दया से / और/औरों को भी भिगोती है। माटी में बोया गया बीज / समुचित अनिल-सलिल पा पोषक तत्त्वों से पुष्ट- पूरित / सहस्र गुणित हो फलता है ।" (पृ. ३६५) अर्थवादी की वणिक वृत्ति के लिए 'मूकमाटी' में स्वर्ण कलश के लिए 'पूँजीवाद' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिस पर क्रान्तिकारी अपना एकाधिकार मानते हैं : “परतन्त्र जीवन की आधार शिला हो तुम, / पूँजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम / और / अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६) अर्थकेन्द्रित समय कलिकाल है जो अनेक विकारों से ग्रस्त एक भयावह स्थिति भी है। आचार्य विद्यासागर ने उसकी कुछ विकृतियों का उल्लेख किया है कथनी-करनी में अन्तर, उष्ण प्रकृति, उन्मत्त, वाचाल, कूटनीति, विषधर, घमण्ड के अखण्ड पिण्ड, अदय हृदय, कलह, दुराशय, दुराचार, रुष्ट, तप्त, बैर, विरोध, विषयरसिक, कठोर, कर्कश, कायरत आदि । यहाँ तक कि आचार्य विद्यासागर की टिप्पणी है कि रचना और कलाएँ भी विक्रय सामग्री हैं : 'सकल-कलाओं का प्रयोजन बना है / केवल अर्थ का आकलन-संकलन ।” (पृ. ३९६) आचार्य विद्यासागर सन्त कवि हैं और सन्त केवल समस्याओं पर आक्रोश व्यक्त करके सन्तुष्ट नहीं हो जाते, वे प्रश्नों का उत्तर भी चाहते हैं । यहीं आचार्य विद्यासागर के व्यक्तित्व में सन्त और कवि का उल्लेखनीय संयोजन हुआ है । सन्त बड़ी मूल्य चिन्ताएँ करते हैं और कवि कल्पना क्षमता से दिवास्वप्न का संकेत । 'मूकमाटी' में 'विवेक'' पर बल दिया गया है, अनेक रूपों में । यह विवेक तथाकथित ऐसे बुद्धिवाद से भिन्न है, जिसकी आड़ में कई बार छल का भी औचित्य प्रमाणित करने की चतुराई की जाती है। आचार्य विद्यासागर का विवेक जागृत बोध है, ऊर्ध्वमुखी यात्रा करता हुआ, जीवन दृश्यों को निहारता । जो लोग सन्त को किसी विलग संसार का व्यक्ति मानते हैं, उन्हें सही अवधारणा के लिए 'मूकमाटी' के उन असंख्य स्थलों पर ध्यान देना चाहिए जहाँ जीवन-जगत् की आधुनिक व्याख्याएँ हैं : "उत्साह हो, उमंग हो / पर उतावली नहीं । / अंग-अंग से विनय का मकरन्द झरे, / पर, दीनता की गन्ध नहीं ।" (पृ. ३१९ ) 'मूकमाटी' में आचार्य विद्यासागर की मौलिक चिन्तन क्षमता सर्वाधिक विचारणीय है । वे श्लेष का सहारा लेते हुए कई बार शब्दों की अपनी व्याख्या करते हैं और ऐसे अनेक प्रसंग हैं : 'कुम्भ' - कुं= धरती, भा= भाग्य अर्थात् धरती का भाग्य (पृ. २८); ‘कृपाण' - कृपा + न अर्थात् जिसमें कृपा न हो (पृ. ७३ ); 'अबला' - अ = नहीं, बला- संकट अर्थात् जिससे कोई संकट न हो (पृ. २०३) । पर इस शब्द कौशल की व्याख्या से आगे बढ़कर 'मूकमाटी' का वह समृद्ध चिन्तन पक्ष है जहाँ कवि ने जीवन-जगत् के अनेक ऐसे प्रश्नों पर विचार किया है जो सामयिक कहे जा सकते हैं और प्राय: यह मान लिया जाता है कि सन्त को उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। आचार्य विद्यासागर में वीर रस का विरोध (पृ. १३१), वेतन के अनुचित वितरण पर तीखी टिप्पणी (पृ. ३८७), आतंकवाद (पृ. ४१८), दलित-शोषित जन (पृ. ४२६), अलगाव (पृ. ८९), प्रतिकार भाव (पृ. ९८), हिंसा (पृ. ६४), धर्म का विकृत रूप (पृ. ७३ ), अणुबम, प्रक्षेपास्त्र, स्टार वार (पृ. २४९ - २५१) आदि प्रमाणित करते हैं कि सन्त कवि अपने समय की पीड़ा से
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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