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________________ 'मूकमाटी' का दर्शन : समीक्षा के दो शब्द डॉ. रामजी सिंह 'मूकमाटी' काव्य रूप में एक दार्शनिक कृति है, जिसका केन्द्र बिन्दु सृष्टि-सृजन का कर्तृत्व एवं कारणत्व का अवगाहन है । माटी और कुम्भकार, दण्ड, कील और चक्र, आलोक आदि सब उपमा के उपकरण हैं, लेकिन मूल स्थापना ईश्वर को कर्ता नहीं मानना है । इस दृष्टि से यह महाकाव्य निषेधात्मक है। दुर्भाग्य यह है कि जिस सृष्टिकर्ता ईश्वर तत्त्व को यहाँ अस्वीकार किया जाता है, उस ईश्वर तत्त्व को अन्यरूप में अत्यन्त आस्था के साथ ‘परम श्रद्धेय पूज्य' के रूप में स्वीकारा गया है। असल में आस्तिकता का बोझ इतना प्रचण्ड है कि मुक्त होकर नास्तिक जीवन मूल्य को स्वीकार करने की क्षमता नहीं हो पाती है। इसके विपरीत लोकायत पूर्ण नास्तिक है, इसीलिए उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का न उपादान माना है और न निमित्त । आचार्य श्री विद्यासागरजी ईश्वर प्रत्यय से न तो पूर्णत: मुक्त हो पाते हैं, न संयुक्त ही । यही विडम्बना उनके महाकाव्य की चेष्टा को न दर्शन बना पाती है, न काव्य । ईश्वर प्रत्यय की स्थापना के लिए जगत् तत्त्व की स्वीकृति ही आवश्यक नहीं है । जगत् सृष्टि के पूर्व परमात्म तत्त्व है, जिसने आत्मा एवं अनात्मारूपी सभी पदार्थों का रूप धारण किया :“बहुस्यां प्रजायेयेति।" 'पुरुष सूक्त' को ही देखिए : "प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्त: अजायमानो बहुधा विजायते।” 'गीता' में भी कहा है : 0 "ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् ।" (४/२४) ० "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोनिं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥” (१३/२) असल में इस ऊँचाई पर बिना उठे - उपादान-निमित्त आदि की अवधारणाओं के संकट को दूर नहीं कर सकते। सीमातीत शून्य' की कल्पना सम्भवतः आधारहीन हो जायगी, जब तक हम उस तत्त्व को स्वीकार नहीं करेंगे। ईश्वर तत्त्व के अभाव में प्रबल सांख्य का पुरुष-प्रकृति द्वैत उपमाओं के दुर्बल आधार पर रहा है । मीमांसा कर्मकाण्ड में उलझ गया। बौद्ध दर्शन भी 'चतुष्कोटिविनिर्मुक्तम्' से दिशा संकेत कर उसी तत्त्व की ओर अभिमुख हुआ। आचार्य विद्यासागर या तो शुद्ध दार्शनिक की तरह आते और उदयनाचार्य के तर्कों को खण्डित करते तो एक यशस्वी दार्शनिक द्वन्द्व का दर्शन होता । या फिर सांख्य की तरह कहते : “ईश्वरा सिद्धेः।" । यों, ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ सिद्धि अनुमान से नहीं, शास्त्र एवं आस्था से मानी गई है । मूल तत्त्व को चाहे जिस रूप से हो, मानना है । एक ही महाशक्ति आचार-भेद से भिन्न-भिन्न शक्तिरूप में प्रकाशित हो भिन्न-भिन्न कार्य करती है : “एकैव सा महाशक्तिः तया सर्वमिदं ततम्।" वही परमात्मा सब प्राणियों के भीतर छुपा है : “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।" जगत् उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीन कल्पनाएँ की जा सकती हैं : १. जगत् इसी प्रकार सदैव से बना बनाया चला जाता है। २. जगत्का उपादान प्रकृति है और प्रकृति में जड़ता है। ३. जगत् को किसी बाह्य शक्ति ने बनाया है। प्रथम के विषय में तो यही कहना काफ़ी होगा कि जगत् में प्रथम तत्त्व कुछ नहीं है, सभी मिश्रित हैं और मिश्रित वस्तुएँ नित्य नहीं हो सकतीं । अत: यह कल्पना की जगत् सदैव से इसी प्रकार बना बनाया चला जाता है,
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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