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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 519 स्वस्थ हो और इन्द्रियाँ भी सम्पन्न हों । वृद्धावस्था में तप नहीं होता । रत्नत्रय के साथ बाह्य और अन्तरंग - दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति पा सकता है । उत्तम त्याग : जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है, उसको त्याग धर्म होता है। दान और त्याग भिन्न हैं । राग-द्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम त्याग है । वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष के अभाव को त्याग कहा गया है। दान पर के निमित्त को लेकर किया जाता है किन्तु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं होती । त्याग स्व निमित्त बनाकर किया जाता है। उत्तम आकिञ्चन्य : जो मुनि सब प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख-दुःख को देने वाले कर्मजनित निज भावों को रोककर निर्द्वन्द्वता से अर्थात् निश्चिन्तता से आचरण करता है, उसको ही आकिञ्चन्य धर्म होता है । सभी के प्रति रागभाव से मुक्त होकर अपने वीतराग स्वरूप का चिन्तन करना ही आकिञ्चन्य धर्म की उपलब्धि है । उत्तम ब्रह्मचर्य : जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों के दिख जाने पर भी उनके प्रति राग रूप कुत्सित परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है । उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए। यही ब्रह्मचर्य धर्म है। वीतराग के पास वह शक्ति है जिसके समक्ष वासना घुटने टेक देती I इस खण्ड में एक अत्यन्त उपादेय भाग है - पारिभाषिक शब्दकोश । आचार्यश्री के प्रवचनों में प्रयुक्त इन पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से प्रवचनानुशीलन में आने वाला अवरोध समाप्त हो जाता है। पाठकों के लिए यह एक अत्यन्त सुविधा और सहकार है। इसका लाभ मुझे भी मिलता रहा है। यह शब्दकोश अकारादि क्रम से अत्यन्त व्यवस्थित और सुबोध रूप से रखा गया है। पावन प्रवचन इस उपखण्ड में तीन प्रवचन संकलित हैं- धर्म : आत्म - उत्थान का विज्ञान, अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तथा परम पुरुष- भगवान् हनुमान । धर्म : आत्म-उत्थान का विज्ञान (१३ फरवरी, १९८३, मधुवन - सम्मेदशिखर, गिरिडीह, झारखण्ड ) पवित्र संस्कारों के द्वारा पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुड़ाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठकर मोक्ष सुख पा सकता है। धर्म इसी आत्मोत्थान का विज्ञान है । जैन धर्म प्राणिमात्र के लिए पतित से पावन बनने का मार्ग बताता है । धर्म माध्यम से कर्मरूपी बीज को जला दिया जाय तो संसारवृक्ष की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। यह कार्य रत्नत्रय के माध्यम से सम्भव है । अन्तिम तीर्थंकर-भगवान् महावीर (३ अप्रैल, १९८५, खुरई, सागर, मध्यप्रदेश ) 1 भगवान् महावीर अपने नामानुरूप महावीर भी थे और वर्द्धमान भी थे । वे अपनी अन्तरात्मा में निरन्तर प्रगतिशील थे, वर्द्धमान चारित्र के धारी थे। पीछे मुड़कर देखना या नीचे गिरना उनका स्वभाव नहीं था । वे प्रतिक्षण वर्द्धमान और उनका प्रतिक्षण वर्तमान था । अपने विकारों पर विजय पाने वाले, अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाले वे सही माने में महावीर थे । परम पुरुष-भगवान् हनुमान (७ अप्रैल, १९८५, खुरई, सागर, मध्यप्रदेश ) हनुमानजी अंजना और पवनंजय के पुत्र थे, इसलिए पवनपुत्र कहलाते थे । उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ़
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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