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________________ रामप्रकाश यह महाकाव्य का दौर नहीं है। क्षणिकाओं का ज़माना है। ऐसे में लगभग पाँच सौ पृष्ठ की काव्य रचना का साहस चौंकाने वाला है । लेकिन यह साहस आचार्य विद्यासागर ने किया है अपनी काव्य कृति 'मूकमाटी' में। आज जब धर्म को धनपशु और धनपिशाच अपना क्रीतदास बनाने पर आमादा हैं, आज जब स्वयं धर्माचार्य धर्म को सेठाश्रयी और राजाश्रयी करने को आतुर हैं, तब माटी की, मूकमाटी की बात करना, कहना और पढ़ना अच्छा लगता है। यह काम तो इस काव्य में हुआ है कि मिट्टी के प्रतीक से सृष्टि, मनुष्य के कल्याण, संघर्ष और निर्माण की कथा कही गई है। इस पुस्तक से केवल कविता का नहीं बल्कि कहानी का, नाटक का, 1 निबन्ध का धर्म और दर्शन का काम भी 'एक साधे सब सधे' के अंदाज़ से किया गया है। आचार्य विद्यासागर की यह कृति काव्य से वाहक का काम अधिक लेती है। स्पष्ट ही कविता माध्यम है जैन धर्म के मूल्यों की प्रतिष्ठा का । इसलिए इसे काव्य प्रतिमानों के निकष पर कसने से ही बहुत कुछ हासिल होना नहीं है क्योंकि मूल लक्ष्य वह सन्देश है जो कविता देना चाहती है। इसलिए यह व्यर्थ की बहस होगी कि यह महाकाव्य है, खण्ड धुनिक कविता का कोई नया प्रकार ? ara मूकमाटी का विद्यासागरीय संवाद हमारा सारा धार्मिक साहित्य, दार्शनिक साहित्य, यहाँ तक कि गणितीय और वैज्ञानिक साहित्य तक कविता में है । ऐसी स्थिति में साहित्यिक रुझान वाले धार्मिक सन्तों का रुझान काव्य सृजन के प्रति होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है । 'मूकमाटी' में रिटोरिक का आग्रह ही ज़्यादा है, छन्दानुशासन का नहीं और ना ही स्वच्छन्द छन्द का । गद्य कविता भी यहाँ लय के अतिरिक्त आग्रह के कारण नहीं बन पाई है । धर्म प्राण श्रद्धालुओं के लिए 'मूकमाटी' का महत्त्व बहुत सकता है। साहित्य में इसे उतनी प्रतिष्ठा मिलना for है, जितनी कि अपेक्षा इसके प्राक्कथनों, भूमिकाओं या फ्लेप पर की गई है। असल में भाषा और मुहावरा इसमें सबसे बड़ी बाधा है : O O O 0 "लो, फिर से बादलों में स्फूर्ति आई / स्वाभिमान सचेत हुआ ओलों का उत्पादन प्रारम्भ !" (पृ. २४८) " मखमल मार्दव का मान / मर मिटा-सा लगा । आम्र - मंजुल - मंजरी / कोमलतम कोंपलों की मसृणता भूल चुकी अपनी अस्मिता यहाँ पर ।" (पृ. १२७ ) " जिसके / दोनों गालों पर / गुलाब की आभा ले / हर्ष के संवर्धन से दृग बिन्दुओं का अविरल / वर्षण हो रहा है ।" (पृ. ६) “रूप पर, गन्ध पर, रास पर / परिणाम जो हुआ है परस पर पर्त-दर-पर्त गहरा लेप चढ़ गया है।" (पृ. १८६ ) इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पुस्तक की काव्य भाषा में सामान्य जन के लिए पर्याप्त दुरूह शब्द हैं। इसलिए सम्प्रेषण में दिक़्क़त होती है । दूसरी दिक़्क़त इसके दार्शनिक सन्देश की है : O "बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है ।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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