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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 423 दुहिता : पालित, पोषित कन्या को दुहिता कहा जाता है, पर सच्चाई तो इससे भी बढ़ कर है : " दो हित जिसमें निहित हों / वह 'दुहिता' कहलाती है अपना हित स्वयं ही कर लेती है, / पतित से पतित पति का जीवन भी हित सहित होता है, जिससे / वह 'दुहिता' कहलाती है । उभय- कुल मंगल- वर्धिनी / उभय- लोक - सुख - सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका / कहीं रहकर किसी तरह भी .. हित का दोहन करती रहती / सो 'दुहिता' कहलाती है ।" (पृ. २०५ - २०६) मातृ : ‘मातृ' शब्द पूज्य रहा है । सन्तान को जन्म देने के पश्चात् ही नारी 'मातृ' संज्ञा प्राप्त करती है। आचार्यपुंगव विद्यासागरजी ने 'मातृ' शब्द को ज़रा देखिए कितना सटीक, सार्थक परिभाषित किया है : "हमें समझना है / 'मातृ' शब्द का महत्त्व भी । / प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञान प्रमेय यानी ज्ञेय / और / प्रमातृ को ज्ञाता कहते हैं सन्त । जानने की शक्ति वह/मातृ-तत्त्व के सिवा / अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । यही कारण है, कि यहाँ/ कोई पिता- पितामह, पुरुष नहीं है जो सब की आधार - शिला हो, / सब की जननी / मात्र मातृतत्त्व है । मातृ-तत्त्व की अनुपलब्धि में / ज्ञेय - ज्ञायक सम्बन्ध ठप् ! ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ / सुख-शान्ति मुक्ति वह किसे मिलेगी, क्यों मिलेगी/ किस - विध? इसीलिए इस जीवन में / माता का मान-सम्मान हो, उसी का जय-गान हो सदा, / धन्य !” (पृ. २०६ ) अंगना : जिसका स्वयं का अस्तित्व पुरुष संसर्ग से ही पूर्ण होता है, स्वयं में जो समाज का अंग नहीं है तथा सदा पुरुष की वामांगी, सिर्फ़ अंकशायिनी, कामिनी समझी जानेवाली अंगना वास्तव में है क्या ? : " स्वीकार करती हूँ कि / मैं अंगना हूँ / परन्तु, / मात्र अंग ना हूँ.. और भी कुछ हूँ मैं !/ अंग के अन्दर भी कुछ / झाँकने का प्रयास करो, अंग के सिवा भी कुछ / माँगने का प्रयास करो, / जो देना चाहती हूँ, लेना चाहते हो तुम ! / 'सो' चिरन्तन शाश्वत है / 'सो' निरंजन भास्वत है भार-रहित आभा का आभार मानो तुम !" (पृ. २०७) इसके अतिरिक्त भी श्रमण शिरोमणि, मन्मथ भंजक, सदाकाल वन्दित, अनुपम साधक, योगीन्द्र गुरुदेव श्री विद्यासागरजी ने नारी विषयक ललित, अपूर्व तथा प्रचलित अर्थों को भी व्याकरण की ही कसौटी पर नए-नए प्रकार से कस कर नए-नए रूप दिए हैं, नए-नए विशेषण दिए हैं, यथा- दान - कर्म लीना, मृदुता - मुदिता - शीला, वीणा - विनीता, राग-रंग- त्यागिनी, सरला - तरला - मराली, सेव्य सेविका, स्नेहिला आदि (पृ.२०८ - २०९) । नारी जाति को सम्माननीय एवं श्रद्धाजनक पद देनेवाले परमपिता, परम गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों में नतमस्तक है नारी समाज !!
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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