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________________ कालजयी कृति : 'मूकमाटी' डॉ. कुसुम पटोरिया 'मूकमाटी'वह कालजयी कृति है, जिसमें कविता, दर्शन व युगीन चेतना की त्रिवेणी का संगम है । इस काव्य की रचना रूपकात्मक (Allegorical) शैली में हुई है। इसे सांकेतिक या अन्योक्ति शैली भी कहा जा सकता है। भारत में इस शैली का प्राचीन प्रतिनिधि उदाहरण संस्कृत में रचित 'उपमितिभव-प्रपंच-कथा' व 'प्रबोधचन्द्रोदय' तथा आधुनिक प्रतिनिधि उदाहरण 'कामायनी' महाकाव्य है । __मूकमाटी भव्यात्मा का प्रतीक है, जो विशुद्धि मार्ग पर आरोहण करते हुए मोक्षमार्ग पर अग्रसर होती है । 'मूकमाटी' समानान्तर चलने वाली एक साधक की साधना कथा है, पर यह कथा सिद्धान्त विशेष का माध्यम बनकर प्रस्तुत हुई है। कथा के सरस किन्तु झीने आवरण से सिद्धान्त स्वयं झलक पड़ते हैं। काव्य में से अपनी छटा बिखेरते हैं। सहृदय को आध्यात्मिक और साहित्यिक दोनों प्रकार का आनन्द प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण काव्य चार खण्डों में विभक्त है। खण्ड के शीर्षक हैं-'संकर नहीं : वर्ण-लाभ; 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । लगभग ५०० पृष्ठों को समेटे हुए इस काव्य का फलक महाकाव्योचित, विस्तृत है। __महाकाव्य का आरम्भ प्रकृति की सुरम्य क्रोड़ में हुआ है। सूर्य, माँ प्राची की मार्दव गोद में लेटा है । जगत् पर सिन्दूरी राग की आभा बिखरी है । चन्द्रमा और उसके पीछे तरला तारिकाएँ अस्ताचल में छुपी जा रही हैं। तभी सरिता तट की माटी अपनी मूक व्यथा मुखरित करती है, अपनी माँ धरती के सम्मुख । वह पदाक्रान्त जीवन से मुक्त होने की कामना करती है । धरती का सम्बोधन शुरू होता है । साधना के पथ पर आस्था का सम्बल व अपनी स्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है । अपनी लघुता का ज्ञान ही उन्नति के लिए अपूर्व घटना है । "असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९) इसके बाद शुरू होती है साधना के क्षेत्र की यात्रा, स्खलन की सम्भावनाओं के साथ। साधक, न अनुकूलता की प्रतीक्षा करता है और न प्रतिकूलता का प्रतिकार । माटी की व्यथा जीवात्मा के कार्मिक व्यथन की कथा है । आत्मा से कर्मों का संश्लेषण-विश्लेषण ही व्यथा का मूल है । कुम्भकार माटी के जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाता है । मंगल घट में परिवर्तित करने के लिए माटी को शुद्ध करता है, कंकरों को साफ़ करता है, मृदु बनाता है। मिट्टी को वर्णलाभ प्राप्त होता है। ___ वर्ण का आशय रंग या अंग से न होकर आचरण से है । माटी और कंकर दोनों कृष्णवर्ण हैं, परन्तु माटी में मृदुता का गुण है और जलधारण की क्षमता है। कंकर कठोर हैं, जलधारण के अयोग्य । इसीलिए कुम्भकार संकरदोष का निवारण करने के लिए कंकर कोष का वारण करता है और माटी को वर्णलाभ होता है : "नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है। और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९) और यही इस खण्ड के शीर्षक की सार्थकता है। द्वितीय खण्ड में कुम्भकार का प्रयास चालू है। माटी को जलधारण योग्य बनाने उसने कुंकुम के समान मृदु माटी
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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