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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 385 'मूकमाटी' में कवि की आत्मा का संगीत तो है, मगर पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं और न ही किसी अध्यापक का उपदेश ही आरोपित है। कहीं भी दर्शन इसमें आरोपित नहीं है, क्योंकि स्वयं आचार्यश्री ने एक जगह लिखा है कि प्रसंग और परिवेश में दर्शन स्वयं उद्घाटित हो जाता है । इसमें कुछ स्थल तो ऐसे भी हैं जहाँ मन होता है कि न्यौछावर हो जाए। तृतीय खण्ड में एक उदाहरण देखकर बोध और शोध के अन्तर को स्पष्ट कर दिया है । पर्वत की कन्दराओं में बैठकर ज्ञानार्जन करने वाला भी अपने ज्ञान के आश्रय से पर्वत की ऊँची चोटी को देख तो सकता है किन्तु चले बिना उस चोटी के शिखर को प्राप्त नहीं कर सकता । ज्ञानार्जन के पश्चात् ज्ञान को आचरण में ढाले बिना धर्म नहीं होता और न ही मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकरण में आचार्यश्री ने बोध और शोध के अन्तर को बहुत ही उत्तम एवं सहज ढंग से काव्य में स्पष्ट कर दिया है। विद्यार्थीजन अन्त्याक्षरी खेलते हैं। कभी-कभी शब्दों को उलट-पलट भी करते हैं। तब कभी वह शब्दों की उलट-पलट मनभावन रूप में बदल जाती है और एक नया अर्थ उद्भूत हो जाता है । 'मूकमाटी' में भी ऐसे कुछ शब्द हैं जिन्हें हम नवीन अर्थों में पाते हैं। यथा-'राही' शब्द पर ध्यान दें। 'राही' वही है जो सही राह पर चले तो 'हीरा' बन जाता है । यह शब्द व्युत्क्रम कर नवीन अर्थ की अभिव्यंजना भाव सौन्दर्य की अभिवृद्धि करा देता है। वर्षों से हम पढ़ते/सुनते चले आ रहे हैं वह धर्म वाक्य, जिसे 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' के नाम से जाना जाता है । आचार्यश्री ने अनुभवगम्य एवं इतनी सरल/सहज भाषा में इस सूत्र को व्याख्यायित कर दिया है जिसे पढ़/सुनकर हृदय एवं मन दोनों ही तरोताज़ा/प्रफुल्लित हो जाते हैं। ‘उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' इसकी व्याख्या हम पढ़ते आए हैं कि 'उत्पाद' होता है, 'व्यय' होता है मगर ये जो 'धुव' अर्थात् धौव्यपना है वह शाश्वत है, सनातन है, चिरन्तन है, निरन्तर है, अजर-अमर है । ऐसी व्याख्या वर्षों से पढ़ने के बावजूद भी सरल एवं बोधगम्य शब्दों एवं भावों के साथ आज तक पढ़ने/सुनने को नहीं मिली । अंग्रेजी के महान् कवि शेक्सपियर' के सम्बन्ध में एक विशिष्ट बात कही जाती है कि शेक्सपियर' ने जैसा लिखा, उतना श्रेष्ठ उसके पहले नहीं लिखा गया। ठीक वैसी ही स्थिति आचार्य श्री विद्यासागरजी के महान् महाकाव्य 'मूकमाटी' के इस प्रकरण में हम देख रहे हैं : ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इसे आचार्यश्री ने अत्यन्त सरल भाषा में हमारे मानस पटल पर बैठा दिया है। इसे सामान्य भाषा में कह सकते हैं : “आना जाना लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है/जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है/ और/यानी चिर-सत्/यही सत्य है/यही तथ्य !" (पृ. १८५)। बड़े-बड़े पाण्डित्य पूर्ण ग्रन्थों के अर्थों को इतनी सरल ढंग एवं सहज भाषा में कह दिया जाना तथा माटी-सी सरलता को भाषा में उतार देना तो अत्यन्त दुरूह/मुश्किल कार्य है। इस भाषा की सरलता का श्रेय मैं समझता हूँ जिन्होंने सब कुछ बाह्य परिग्रह/आडम्बर छोड़ दिया है तभी सृजनात्मकता की ओर मुड़ने से ऐसे भावों के आँगन में शब्दों की भीड़ लग सकी और उनके हृदय में बैठी करुणा ने उन्हें हम सबको दिशाबोध कराने हेतु प्रेरित किया है। चतुर्थ खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक वाला है । यह अपने आप में स्वयं एक विशिष्ट गरिमा को धारण किए है। काव्य में शब्दों को विलोम कर अर्थ चमत्कार उत्पन्न करा दिया गया है, यथा- 'खरा' यानी राख से भी खरा जैसा अर्थ निकाल लाना तथा "मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है" (पृ. २७७) । इस पंक्ति में जलाना और जिलाना यहाँ इतने पड़ोसी शब्द हैं फिर भी एक-दूसरे से इनमें विपरीत अर्थ माना जाता है। इसके बावजूद भी उनके सम्बन्ध को मृदुलता और स्नेहलता प्रदान करने का काम एक सन्त की दृष्टि ही कर सकती है, जो यहाँ शब्दअर्थ एवं भावश: सही/खरी उतरी है। तभी शब्द को अर्थ, अर्थ को परमार्थ और आलोचना के मिस लोचन इस 'मूकमाटी' काव्य में प्राप्त होते हैं।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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