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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 369 अनिवार्यता का रहस्योद्घाटन किया गया है। तीर्थंकरत्व अथवा अर्हन्तावस्था प्राप्त करने के उपरान्त संघ स्थापना एवं धर्म चक्र प्रवर्तन की समस्त प्रक्रियाएँ लोकहित के लिए होती हैं । अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म हैं यानी जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश करके परमात्म पद प्राप्त कर लिया है, किन्तु शरीर एवं कर्मों के क्षय होने तक उन्हें इस संसार में रुकना है (पृ. ३४६) । अर्हन्त का परम औदारिक शरीर होता है। वे सशरीरी कहलाते हैं। 'निष्कल' एवं 'सकल' यानी अशरीरी और सशरीरी (द्रव्य-भाव एवं नोकर्म रहित / सहित) के अतिरिक्त इनमें (सिद्ध एवं अर्हन्त) और कोई भेद नहीं है । काव्य जगत् में भाषा की सशक्त भूमिका होती है। 'मूकमाटी' की सर्जनात्मक भाषा हमें कवि के भाषायी ज्ञान से अवगत कराती है । यह तथाकथित तथ्य सर्वविदित है कि शब्दों की परिसमाप्ति पर भी सशक्त कविता हावी रहती है किन्तु इसके विपरीत शब्दों की गतिशीलता बनी रहने पर भी अशक्त कविता हावी नहीं होती । अतः निष्कर्ष यह है कि मात्र शब्दार्थ ही नहीं अपितु संवेदनशीलता भी अनिवार्य तत्त्व है । 'मूकमाटी' में प्रयुक्त भाषा में संवेदनात्मकता है। आचार्यश्री ने भाषा को नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है । काव्य में भाषा एवं भावानुभूति दोनों का सामंजस्य ही नहीं अपितु आध्यात्मिकता के निर्वाह में भी पूर्णरूपेण प्रभावान्विति हुई है । 'मूकमाटी' काव्य की आत्मा की यदि गवेषणा करनी है तो इसकी संरचना का मूलाधार शब्द विन्यास, शब्दार्थ विधान एवं भाषा विज्ञान के विधान पर ध्यान एकत्रित करना होगा । यही उसकी अन्तर्निहित अन्विति है । आचार्य विद्यासागर का शब्द विधान एवं अर्थ विधान उनकी निजी संरचना है । अत: यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि शब्द एवं अर्थ परस्पर अन्वित तथा संग्रथित हो साकार हो उठे हैं। किसी भी रचना के शब्द कोरे नहीं होते हैं अपितु वे पद्य के अंग होते हैं, वाक्यांश होते हैं। वाक्य के शब्दों में भावों की तरलता, सरसता, स्पन्दन उन्हीं के कारण सम्भव होती है। भाषा कवि के भावों की वाहक होती है । रचना पठन-पाठन के उपरान्त जो उपलब्ध होता है, वह न तो रचना होती है और न ही रचनाकार । सत्यार्थ में वह रचना द्वारा सम्प्रेषित रचनाकार की रचनात्मक मानसिकता ही होती है, जो आचार्य की अनुभूति से अनुप्राणित है, और विशिष्ट तो यह है कि 'मूकमाटी' में कविता तथ्य की वाहक नहीं, सम्प्रेषक है। इसमें अभिधेयार्थ एवं लक्ष्यार्थ अन्तर्मुख एवं बहिर्मुख है । अर्थसंकेतों में सन्तुलन एवं सामंजस्य से चमत्कार उत्पन्न हुआ है। ऐसी स्थिति में अनुभूति की अभिव्यक्ति का स्वरूप समृद्ध हुआ है; "भूत की माँ भू है, / भविष्य की माँ भी भू...।” (पृ. ३९९ ) आचार्यश्री की प्रवचनकर्त्ता प्रणाली की प्रतिक्रिया स्वरूप (संवाद), कथोपकथन पद्धति काव्य में परिलक्षित होती है। सम्पूर्ण काव्य मानवीकरण की पद्धति पर आधारित होने के कारण जड़ से जड़ का या जड़ से चेतन पदार्थ का वार्तालाप होता है, अत: इसमें संलाप शैली का प्रयोग किया गया है। जैसे फूली फूली धरती कहती है कुम्भ से : D O O 66 'पूत का लक्षण पालने में / ... सृजनशील जीवन का आदिम सर्ग हुआ ।” (पृ. ४८२) “जो/अहं का उत्सर्ग किया / सो / सृजनशील जीवन का द्वितीय सर्ग हुआ ।” (पृ. ४८२) " उत्साह साहस के साथ / जो / सहन उपसर्ग किया, सो/ सृजनशील जीवन का / तृतीय सर्ग हुआ ।” (पृ. ४८२-४८३) "बिन्दु - मात्र वर्ण-जीवन को / ... जो / स्वाश्रित विसर्ग किया, सो/ सृजनशील जीवन का / अन्तिम सर्ग हुआ ।” (पृ. ४८३)
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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