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________________ 'मूकमाटी' में प्रतिपादित जैन तत्त्वदर्शन : एक परिचय डॉ. मधु धवन 'मूकमाटी' जैन दर्शन के कलेवर में संलिप्त रूपक महाकाव्य है, जो भारतीय धर्म-दर्शन-साहित्य की उल्लेखनीय उपलब्धि है । माटी के मानवी रूप की परिकल्पना कर तपस्वी आचार्य विद्यासागर ने अत्यन्त कलात्मकतापूर्ण अलंकृतचमत्कृत शब्दों के माध्यम से संलाप शैली में जैन धर्म के सिद्धान्तों का उद्घाटन किया है । तपस्वी सन्त ने आज के विघटित, प्रदूषित होते हुए सामाजिक परिवेश में तात्त्विक जीवन दर्शन की महिमा का मूल्यान्वेषण करते हुए जैनागमों के हृदय-फलक पर धुंधले पड़ते अर्हन्त देव के रूप तथा आचरण को पुन: स्थापित कर, मोक्ष प्रदान करने वाली जैन दीक्षा से अनुप्राणित एक नए भावबोध को सम्पृक्त करने का सशक्त एवं सफल प्रयास किया है। तपस्वी विद्यासागर की तपश्चर्या का स्थल प्रकृति की रम्य गोद होने के कारण प्रस्तुत महाकाव्य का आरम्भ भी प्रकृति की स्वर्णिम आभा की अपूर्व छटा से होता है । महाकवि का कवि हृदय या यों कहूँ कि आचार्य का तापस हृदय तपश्चर्या के महत्त्व का उल्लेख करता हुआ पाठक को प्रकृति-पथ से स्वर्गीय आनन्द का पान करवाता हुआ दार्शनिकता के ठोस धरातल पर ला खड़ा करता है, जो प्रशंसनीय एवं वन्दनीय भी है । तप भारतीय नैतिक जीवन एवं संस्कृति का प्राणतत्त्व है । भारतीय जीवन धर्म-दर्शन, जो शाश्वत, उदात्त, दिव्याभायुक्त एवं अलौकिकता से सम्भूत है, वह सब कठोर तपश्चर्या के सु-अंक से प्रत्युत्पन्न है : "तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर जला-जला कर/राख करना होगा।” (पृ. ५७) 'मूकमाटी' काव्य के कथ्य और शिल्प का अपना अनूठा वैशिष्ट्य है । कथ्य लौकिक-दैनिक जीवनचर्या के परिप्रेक्ष्य में रूपकों एवं प्रतीकों का प्रश्रय पाकर आध्यात्मिकता ग्रहण करता है । यहाँ बौद्धिक स्वीकृति देकर एक अन्तर्दृष्टि मूलक पहचान का आग्रह है । माटी रूपी जीव शिल्पी रूपी गुरु चरणों में पूर्ण समर्पित हो जाती है (पृ. २९३३) गुरु महाराज उसे वर्ण-संकर (पृ. ४६) की स्थिति से मुक्त कर कुम्भ रूप प्रदान करने के लिए उसका परिशोधन करते हैं (पृ.४४-४५) । माटी नाना यातनाओं, शिक्षण-परीक्षण से गुज़रती हुई परिपक्वावस्था को प्राप्त हो कुम्भ रूप में परिवर्तित हो जाती है । कुम्भ पर चन्दन-केसर के स्वस्तिक एवं ओंकार परिभूषित कर मांगलिक घट बना दिया जाता है और कुम्भ गुरु-पद-प्रक्षालन करता है (पृ. ३०९-३२४)। इसका कथानक तपस्वी की अनुभूति से उत्पादित है । जो कुछ वह अपने अन्दर महसूस करता है वही भाव उसे अपने समक्ष प्रकृति में घटित होते परिलक्षित होते हैं। उन अनुभूतियों को तथा जीव की मूलभूत त्रुटियों को तटस्थ हो लिपिबद्ध किया गया है । यहाँ जैन दर्शन के आधारभूत शिवत्व (परम) की उपलब्धि कैवल्य-साधना एवं अनेकान्तवाद द्वारा होनी बतलाई गई है। जैन धर्म दयालुता की शिक्षा देता है, अहिंसा पर बल देता है तथा मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, जो 'मूकमाटी' में मुखर हुआ है। आज के जीवन की अनुभूति बहु-आयामी है, अतएव विषय-वैविध्य उसका वैशिष्ट्य बन गया है। 'मूकमाटी' इसका अपवाद नहीं है । इसके चारों खण्डों का फलक विस्तृत ही नहीं अपितु विषय की विविधता लिए हुए है। विषयवैविध्य को देखिए : जैन दर्शन की दृष्टि से: समत्व योग, त्रिविध साधना मार्ग, सम्यक् तप, अविद्या या मिथ्यात्व, निवृत्ति मार्ग-प्रवृत्ति मार्ग, जैन धर्म के मूल सिद्धान्त-श्रमण-श्रावक-धर्म इत्यादि, नौ तत्त्व (पदार्थ)- जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आसव
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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