SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 357 शब्द नज़र आते हैं, पर उनसे हिन्दी की प्रांजलता में कोई अन्तर नहीं आया । काव्य की संस्कृतनिष्ठ शैली में जो रसोद्रेक किया है उसकी चर्वणा में पाठक आकण्ठ मग्न हो जाता है। वह कहीं ऊबता नहीं है, एक ही बैठक में उपन्यास- जैसा पढ़ लेना चाहता है । इसके बावजूद काव्य में गहनता और विदग्धता भरी हुई है। यह बात तो हुई काव्य के भाव पक्ष और कला पक्ष की । अब हम थोड़ा दर्शन पक्ष को भी टटोल लें। कवि ने काव्य के प्रारम्भिक पन्नों पर 'आस्था' का महत्त्व दर्शाया है, जिससे ऐसा लगता है कि सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रस्तुत किया जा रहा हो। सरिता तट की माटी के उत्तर में माँ धरती ने माटी से संगति का फल और आस्था का महत्त्व बताया है जो सम्यक् दर्शन के प्रस्थान बिन्दु को द्योतित करता है : "... जीवन का / आस्था से वास्ता होने पर / रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को / साथी बन साथ देता है । आस्था के तारों पर ही / साधना की अंगुलियाँ / चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब / स्वरातीत सरगम झरती है ! / समझी बात, बेटा ?" (पृ. ९) आस्था की यात्रा कवि की दृष्टि में निष्ठा और प्रतिष्ठा से चल कर संस्था में परिणत होती है जिसे उसने अव्यय अवस्था कहा है और उसे ही माना है सच्चिदानन्द का केन्द्र - बिन्दु (पृ. १२०-१२१) । तभी तो वह कह सका: " नींव की सृष्टि वह / पुण्यापुण्य से रची इस / चर्म - दृष्टि में नहीं अपितु / आस्था की धर्म-दृष्टि में ही / उतर कर आ सकती है।" (पृ. १२१ ) 'मूकमाटी' के माध्यम से आचार्यश्री ने उपादान और निमित्त का झगड़ा भी हल कर दिया है। उन्होंने काव्य के अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि कार्य का जनक उपादान कारण ही नहीं, अपितु निमित्त भी है: "केवल उपादान कारण ही / कार्य का जनक है - / यह मान्यता दोष - पूर्ण लगी, निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है । / हाँ ! हाँ ! / उपादान - कारण ही कार्य में ढलता है /यह अकाट्य नियम है, / किन्तु / उसके ढलने में निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है।” (पृ. ४८० - ४८१ ) सारा महाकाव्य स्वभाव और विभाव की व्याख्या करता है । महासत्ता को पहचानने का पथ-दर्शन करता है। संगीत की छाया में आत्मा की शक्ति को अभिव्यक्त करता है और साधु के आचरण को पाथेय के रूप में प्रस्तुत करता है । वस्तुत: उसकी दृष्टि में व्यक्ति का आचरण उसकी खुली किताब है जहाँ राग, द्वेष, मोह, क्रोध शान्त हो जाते हैं और आतंकवाद परदे के पीछे लुप्त हो जाता है। यही श्रमण की समता और गणतन्त्र की परम्परा है। माटी से मंगल कलश तक पहुँचने में उसे जिन पड़ावों का आश्रय लेना पड़ता है उनका सुन्दर और सरस चित्रण इस काव्य में मिलता है। इसमें न द्वन्द्व है, न युद्ध है, न शृंगार है, न वियोग है बल्कि सांसारिकता को समाप्त करने का एक अमिट पाथेय हर पन्ने में टंकित है । इसलिए शान्त रस इसका प्रमुख रस है, जहाँ करुणा की सरिता बहती है, आस्था का फूल खिलता है और चिदानन्द चैतन्यमय रस फलित होता है । इसके लिए स्व- पर ज्ञान की अनुभूति आवश्यक है (पृ. ३७५ ) । शायद इसीलिए कवि ने कुम्भ की विशेषता बताते हुए श्रमण की सही मीमांसा की है और समता की नई-नई पर्तें उकेरी हैं (पृ. ३७७-३८१)। सेठ का प्रसंग लाकर मच्छर और मत्कुण की भूमिका में समाजवाद का भी अपने ढंग से दार्शनिक अर्थ किया है (पृ. ४६० - ४६१) ।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy