SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 308 :: मूकमाटी-मीमांसा यह त्रिभुवन घोर अन्धकार में निमग्न हो जाता, यदि सृष्टि के आरम्भ से शब्द (भाषा) की ज्योति नजलती होती। बोध (कंसेप्ट, प्रतीति, प्रत्यय) के बिना शब्द का महत्त्व नहीं होता । बोध का सिंचन पाकर ही शब्द के पौधे लहलहाते हैं : "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है, कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे. बोध के फूल कभी महकते नहीं।” (पृ. १०६-१०७) बोध का फल परिपक्व होकर शोध कहलाता है : "बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है ।/बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है ।" (पृ. १०७) मन ही बन्धन है। मन ही है मोक्ष । मन है समस्त पाप-पुण्य, सुख-दुःख, राग-विराग, जय-पराजय का कारण । कवि स्पष्ट करते हैं कि न कोई मन्त्र अच्छा होता है, न कोई बुरा । अच्छा-बुरा तो मन होता है : "अच्छा, बुरा तो/अपना मन होता है/स्थिर मन ही वह महामन्त्र होता है/और/अस्थिर मन ही/पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है/एक दुःख का सो पान है।” (पृ. १०८-१०९) ___ खण्ड तीन है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' खण्ड के प्रारम्भ से ही कवि पाप-पुण्य, नीति-अनीति, विधि-निषेध की अन्तरंग पहचान कराने लगते हैं : "पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है,/और पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है । यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है, नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. १८९) • धरती है सर्वसहा । वह सब कुछ सहती है । (खूद-खाद धरती सहै, काट-कूट वनराई'-कबीर) । अपने साथ दुर्व्यवहार पर कोई प्रतिकार नहीं करती । सन्त-पथ यही है । कवि का कथन है : "सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है ।” (पृ. १९०) व्यष्टि-हित पर केन्द्रित रहने वाले कभी परमार्थ की ओर आँख उठाकर देख नहीं पाते । अर्थ-लिप्सा किस । प्रकार मनुष्य को पतित और निर्लज्ज बना देती है : "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती, अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) महात्मा के लक्षण हैं- मन, वचन और कर्म की एकता । इसकी एकता से शुभ कार्य सम्पादित होते हैं। व्यष्टि
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy