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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 281 जनम और मरण के बीच जीवन्त क्षणों का उपयोग इस धरती के प्राणी को किस प्रकार करके अपने स्वस्वभाव, स्व-समय और स्व-स्थान में रमण करने योग्य बनाना है, ऐसे कई ‘अनुत्तर' प्रश्नों के उत्तर इस महाकाव्य में अनायास ही मिल जाते हैं । विज्ञान के और दर्शन के ठोस, तरल, गैस और चिन्तन के 'ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय' का काव्यात्मक, सुन्दर समन्वय सामान्य कवि प्रतिभा के वश की बात नहीं है। ___ इसमें 'राही' चलते-चलते 'हीरा' बन जाता है । इसके या इस जैसे उदाहरण महापण्डित बौद्ध विद्वान् राहुल सांकृत्यायन और भदन्त आनन्द कौशल्यायन और उनकी साहित्य कृतियाँ ही हैं। राख' के नीचे 'खरा' स्वर्णिम, तप्त आत्म अंगार है जो कि ऊपर से मातंग दिखता है पर भीतर सम्यग्दृष्टि है, यह स्वामी समन्तभद्राचार्य के रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कह सकते हैं । 'राधा' कहते-कहते संसार की धारा से छूट-निराधार नहीं, स्व-आधार आत्मानन्द और शिवशक्ति स्वरूप आत्मरूप, अविनश्वर, सिद्धशिला पर विराजित अनन्त, अखण्ड, अक्षय, अविनाशी आनन्द के स्वामी बन सकते हो, यह राधास्वामी' के अनुभवी साधक ही बता सकते हैं। 'वैखरी' में ध्वनि, वाणी, मन्त्राक्षरों और उनके प्रयोग, जो प्रसिद्ध तान्त्रिकों, मान्त्रिकों, उपासकों को भी कभी सूझ न पड़े हों, ऐसे प्रयोग अनायास ही आचार्यश्री के द्वारा विभिन्न अर्थों में प्रस्फुटित होकर दुनिया के दोनों नयों-निश्चय और व्यवहार, क्षणिक और शाश्वत तथा सान्त और अनन्त, शुभ और अशुभ तथा एक और अनेक अर्थों को प्रकटाते हुए विश्व समस्याओं के हल के लिए जैन धर्म के अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी सिद्धान्त को सरलता से समझा जाते हैं। वचन और वाणी के सिद्ध महायोगी की इस रचना में 'द' वरदान की स्मृति आ गई, जिसे देव, दानवों और मानवों ने दया, दमन, दान के अलग-अलग अर्थों में लिया है। अनन्त आकाश, सूर्य रश्मियाँ तथा वायु तो मुफ्त में प्राप्त हैं ही, मात्र मिट्टी और जल से स्वस्थ शरीर रहकर धर्मध्यान कीजिए तथा नर देह में नारायण की सम्प्राप्ति कीजिए। जैन साधु के लिए "जल मृत्तिका बिन और नाहिं कछु गहै अदत्ता" कहीं, तब दौलतरामजी की 'छहढाला' की ये पंक्तियाँ मानों जाग गईं। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी प्रकार से रुग्ण मानवों, पशु और पक्षियों के लिए केवल 'माटी' के प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा स्वास्थ्य लाभ की बात श्री मोदी और 'मदर इण्डिया' के करोड़पति चिकित्सा शास्त्री डॉ. बाबूराव अथवा बंगला के महाविद्वान् मुकुर्जी महाशय ही अपने सैकड़ों प्राकृतिक चिकित्सा ग्रन्थों द्वारा सुझा पाए हैं। जल चिकित्सा और सूर्य-रश्मि चिकित्सा में जो कार्य पूरे जीवन भर तिब्बत के लामा योगी बता पाए और उज्जैन के डॉक्टर दुर्गादत्त नागर, जो 'कल्पवृक्ष' कार्यालय के संस्थापक और अलौकिक चिकित्सा विज्ञान के भारतीय साधक थे एवं शब्द, चित्र और ध्यान के द्वारा उज्जैन में रहते हुए भी संसार के किसी भी कोने में स्थित रोगी को मात्र ध्यान-विचार और भावना मात्र से ठीक कर देते थे, उस जैसा ही प्रयोग हमें 'मूकमाटी' में मिलता है। मात्र ध्यान से जल वर्षाकर' जैन निर्ग्रन्थ मुनि ने जलते हुए सैकड़ों हाथियों-जानवरों को जंगल की दावानल अग्नि से बचाकर रक्षा की तथा तीर्थंकर प्रकृति' का बन्ध किया, साथ ही अनेक पंचेन्द्रियों के प्राण बचाकर अपने अहिंसक, ज्ञान स्वरूप, वात्सल्यधर्मी आत्मा की करुणा का जो परिचय दिया, वह बिना लम्बी-चौड़ी भूमिका के इस महाकाव्य की चन्द पंक्तियों में 'गागर में सागर' की तरह यत्र-तत्र-सर्वत्र सुलभ है। _ 'मूकमाटी' में प्रयुक्त 'गदहा, 'याद' आदि के प्रयोग प्रभाकर माचवे की कृति ‘परन्तु' से बहुत आगे के और महत्तम भी हैं । स्वरों का संगीत, ओम् ध्वनि, अनहद नाद और आकाशव्यापी महा भै+ रव की परिकल्पना को ताज़ा कर देता है । वेदों के बाद ध्वनि प्रभाव और शब्द ब्रह्म की ऐसी अद्भुत, समर्थ अभिव्यक्ति तथा माखन मिश्री के लड्डू
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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