SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 277 लगीं बिन्दियाँ जीवन को सुख से शून्य बताती हैं (पृ. ३०९ ) । जैन दर्शन में वीतरागी पुरुष का बहुत महत्त्व है । उसकी सभी विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। वीतरागी जिस घर में भोजन कर सकता / करता है, उसकी पूर्ण प्रक्रिया भी बताई है । सारी इन्द्रियाँ जड़ होती हैं और जड़ का उपादान जड़ ही होता है। जड़ में कोई चाह नहीं होती और न कोई राह होती है। वीतरागी पुरुष सन्त हो जाता है। उसके समागम से लाभ होता है एवं सही दिशा का प्रसाद मिलता है। सन्त हमेशा नीचे देखते हैं। इसी तरह वस्तु का असली स्वाद सन्त अर्थात् 'जिन' आत्मजयी ही समझता है। ऐसे सन्त और वीतरागी पुरुष की चाह मुक्ति की होती है । वह यही चाहता है कि कर्तव्य सबल हो, तामस नष्ट हो, समता का भाव जाग्रत हो। इसमें कुछ छुटपुट विचार भी व्यक्त किए हैं, जैसे साहित्य के सम्बन्ध में - "जिस के अवलोकन से / सुखक समुद्भव-सम्पादन हो/ सही साहित्य वही है " (पृ. १११) । संगीत वह है जो संगातीत हो, प्रीति वह है जो अंगा हो । सिंह और श्वान वृत्ति द्वारा विचारों का विश्लेषण किया गया है। सिंह विवेक से काम लेता है, श्वान पराधीनता का मूल्य नहीं समझता । श्वान संस्कृति अच्छी नहीं मानी जाती, क्योंकि वह अपनी जाति को देखकर ही गुर्राता है। जबकि सिंह अपनी जाति में मिलकर जीता है। भूखा होने पर श्वान अपने बच्चों को खा जाता है तथा विष्ठा से भी पेट भरता है । आज की संस्कृति श्वान संस्कृति के कहीं निकट है। aad स्थान-स्थान पर पर सन्देश दिए हैं जो आधुनिक सन्दर्भ में सभी के लिए उपयोगी हैं। आज के मानव को ईश्वर पर प्रगाढ़ विश्वास है, फिर भी वह ईश्वर को आत्मसात् नहीं कर सका है, अन्यथा ईश्वर उसके सिर तक ही सीमित नहीं रहता, आत्मा में प्रवेश कर जाता । आज पथ दिखानेवालों को स्वयं ही पथ दिख नहीं रहा, वे स्वयं पथ पर चलना नहीं चाहते। आज की राजनीति में उच्च उच्च ही रहता है और नीच नीच ही रहता है । कवि की ऐसी धारणा नहीं है । आज की आरक्षण प्रक्रिया गलत है । यदि नीचे को ऊँचा उठाना है तो उसमें सात्त्विक संस्कार डालने होंगे । समाजवाद का मात्र नारा लगाने से कोई समाजवादी नहीं बनेगा । हमें समता भाव रखना होगा एवं भेदभाव समाज से दूर करना होगा, अन्यथा यह निश्चित है कि मान को ठेस पहुँचने पर आतंकवाद का जन्म होगा ही । अतिशोषण या अतिपोषण भी इस आतंकवाद का जनक है। आज का सामाजिक दृष्टिकोण यह है कि पदवाले ही पदोपलब्धि के लिए पर को पद-दलित करते हैं । अत: आतंकवादी चाहते हैं कि उन्हें आश्वस्त किया जाए, विषमता समाप्त हो, दु:ख का अन्त हो और उन्हें भी सुख मिले । अन्यथा जब तक आतंकवाद जीवित रहेगा यह धरती शान्ति का श्वास नहीं ले सकती । आज का युग उलटे विधानवाला है, तभी तो सत्य आत्मसमर्पण करता है वह भी असत्य के सामने । आतंकवादियों को समाज ही पैदा करता है। समाज में विषमता न होती तो आतंकवादी पैदा न होते। अत: विषमता को नष्ट करना होगा, भेद भाव को को भी खत्म करना होगा, तभी आतंकवाद समाप्त होगा । महाकाव्य सम्पूर्ण जीवन पर आधारित होता है, अत: वह जीवन के ज्ञान का संचय होता है। उस दृष्टि से इस काव्य में रचनाकार ने अथाह ज्ञान उँड़ेला है । लेखक को आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा आदि का ज्ञान है। उसने बीमारी तथा उसके उपचार भी बताए हैं, जैसे- जठराग्नि मन्द पड़ने पर दही, मट्ठा, महेरी पीना चाहिए। उष्ण प्रकृति होने से पित्त कुपित होता है तथा चित्त क्षुभित होता है । मट्ठे को छौंक देने से वह पाचक होता है। दूध में मिश्री मिलाने से वह बलवर्धक बनता है । सन्धिकाल में खाना रोग का कारण है, क्योंकि सन्धिकाल साधना के लिए उपयुक्त है। दाह रोग का निदान बताते हुए आपने कहा है कि चाँदनी रात में चन्द्रकान्त मणि से झरा उज्ज्वल शीतल जल लेकर, मलयाचल के चन्दन को घिसकर ललाट-तल एवं नाभि पर लगाने से दाह रोग शमित होता है। दूसरा निदान - तात्कालिक ताजे शुद्ध सुगन्धित घी में अनुपात से कपूर को मिलाकर उँगुलियों से मस्तक के मध्य ब्रह्मरन्ध्र पर मर्दन करें। रोगन आदि गुणकारी तैल का रीढ़ में मर्दन करें, यह उपचार दाह रोग में रामबाण है। दाह रोग क्यों होता है, इसके कारणों पर भी प्रकाश डाला है । बलवर्धक दूध न पीने से, ओज-तेज विधायक घी के न खाने से तथा दधिनिर्मित पकवान ना खाने से दाह रोग होता I
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy